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________________ - · सुख का राज मार्ग २२७ ऊपर का विवेचन लौकिक प्रत्यक्ष को लक्ष्य में रखकर किया गया है। सर्वसाधारण जनता में यही प्रत्यक्ष और परोक्ष का स्वरूप है परन्तु दर्शनशास्त्र की गहराई में जाते हैं तो यह लोक प्रत्यक्ष भी वास्तव में परोक्ष ही है क्योंकि दर्शन में स्पष्टता और अस्पष्टता की परिभाषा लोक प्रचलित नहीं है। दर्शन में तो जो निमित्तसापेक्ष है, वह अस्पष्ट है और जो निमित्तनिरपेक्ष है, वह स्पष्ट है। अत: मति और श्रुत ज्ञान को शास्त्रकारों ने परोक्ष माना है। मति और श्रुत: __ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी परोक्ष ज्ञान हैं, क्योंकि इनसे वस्तु का निमित्तनिरपेक्ष साक्षात् बोध नहीं होता है। मति और श्रुत में आत्मा किसी भी ज्ञेय वस्तु को जानने के लिए इन्द्रिय और मन के निमित्त की सहायता लेती है, आत्मा से ज्ञेय का निमित्तनिरपेक्ष सीधा सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता। रूप का ज्ञान आँखों के सहारे से होता है। आत्मा को रूप का ज्ञान तो जरूर हो जाता है, परन्तु उक्त रूप ज्ञान का वह साक्षात् ज्ञात न होकर आँखों के माध्यम से ज्ञात होती है। अतः यह रूप का, साक्षात् का, प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं, क्योंकि रूप और आत्मा के बीच में आँखों का माध्यम रहता है। इसी प्रकार शब्द ज्ञान के लिए शब्द और आत्मा के बीच भी सीधा सम्बन्ध न होकर, कान के माध्यम से सम्बन्ध होता है। यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। रस का ज्ञान जिह्वा के निमित्त अर्थात् माध्यम से होता है, गन्ध का ज्ञान घ्राण से और स्पर्श का ज्ञान स्पर्शइन्द्रिय से होता है और जो मनन, चिंतन तथा शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान होता है, उसमें मन निमित्त होता है। यदि आँख और कान आदि इन्द्रियाँ ठीक हैं और स्वस्थ हैं, तो उन इन्द्रियों के माध्यम से रूप आदि का बोध अनुभूति में आता है, अन्यथा नहीं। यदि इन्द्रियों के माध्यम में कोई विकार या दोष आ जाता है, तो वह रूप आदि का बोध भी अवरुद्ध हो जाता है, एक प्रकार से ज्ञान के द्वार पर ताला लग जाता है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरेन्द्रिय आदि जीवों में जिन-जिन इन्द्रियों की हीनता होती है, उन्हें उनके माध्यम से होने वाला ज्ञान भी अनुभूत नहीं हो पाता। इस प्रकार आत्मा स्वयं ज्ञाता होकर भी इन्द्रियों के आश्रित रहती है। इसी कारण से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहा गया है। आत्मबोध : ज्ञान की सही दिशा : आत्मा का ज्ञान, जो प्रायः सभी साधकों को हो रहा है, वह कौन-सा ज्ञान है ? उसके माध्यम में न आँखें हैं, न कान है, न नाक है, न जिह्वा है और न त्वचा है। इस ज्ञान का माध्यम है-मन! आत्मा के सम्बन्ध में शास्त्रों में जो वर्णन आया है, उसे हम पढ़ते हैं, फिर चिन्तन-मनन करते हैं, और तब मन के चिंतन द्वारा आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है। यह आत्मा का बोध परोक्ष बोध है, क्योंकि इसमें मन निमित्त है। आत्मा का प्रत्यक्ष बोध तो एक मात्र केवल ज्ञान से ही होता है। परन्तु वह परोक्ष बोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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