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जीवन में 'स्व' का विकास २२३ अन्याय होता है, उसका स्वाभिमान तिलमिला उठता है। इसलिए दोनों का सन्तुलन बनाए बिना गति नहीं है। दोनों को समाधान तभी मिलेगा, जब तुम दोनों के पक्ष पर सही विचार करोगे और इनका बराबर सन्तुलन बनाओगे।"
आप दुकान पर जाते हैं, और घर पर भी आते हैं, यदि दुकान पर ही बैठे रहे, तो घर कौन सँभालेगा, और घर पर ही बैठे रहे तो दुकान पर धन्धा कौन करेगा ? न घर पर 'ही' रहना है, न दुकान पर 'ही'। बल्कि घर पर 'भी' रहना है, और दुकान पर 'भी'। दोनों का सन्तुलन बराबर रखना है। शायद आप कहेंगे यह तो दो घोड़ों की सवारी है, बड़ी कठिन बात है । मैं कहता हूँ-यही तो घुड़सवारी की कला है। एक घोड़े पर तो हर कोई चढ़ कर चल सकता है। उसमें विशेषता क्या है ? दो घोड़ों पर चढ़कर जो गिरे नहीं, बराबर चलता रहे, सन्तुलन बनाये रखे, यही तो चमत्कार है !
मनुष्य को जीवन में दो क्या, हजारों घोड़ों पर चढ़कर चलना होता है। घर में माता-पिता होते हैं, उनका सम्मान रखना पड़ता है, पत्नी होती है, उसकी इच्छा भी पूरी करनी पड़ती है, छोटे भाई, बहन और बच्चे होते हैं, तो उनको भी खुश रखना होता है, समाज के मुखिया, नेता और धर्मगुरुओं का भी आदर करना होता हैसबका संतुलन बनाकर चलना पड़ता है। यदि कहीं थोड़े से भी घबड़ा गए, सन्तुलन बिगड़ गया, तो कितनी परेशानी होती है, मुझसे कहीं ज्यादा आप इस बात का अनुभव करते होंगे। यह संतुलन तभी रह सकता है जब आप 'ही' के स्थान पर 'भी' का प्रयोग करेंगे। जैनधर्म, जो मनुष्य के उत्तरदायित्वों को स्वीकार करता है, जीवन से इन्कार नहीं, सिखाता है, वह जीवन को सुखी, कर्त्तव्यनिष्ठ और शांतिमय बनाने के लिए इसी 'भी' की पद्धति पर बल देता है, वह जीवन में सर्वत्र संतुलन बनाये रखने का मार्ग दिखाता है।
'स्व' का संतुलन:
मैं प्रारम्भ में आपको कुछ राजाओं की बात सुना चुका हूँ, उनके जीवन में वे त्रिकथाएँ, और दुर्घटनाएँ क्यों पैदा हुई ? आप सोचेंगे और पता लगाएँगे तो उनमें 'स्व' का असंतुलन ही मुख्य कारण मिलेगा। मैंने आप से बताया कि 'स्व' का अर्थ आत्मा भी होता है और शरीर भी । मनुष्य का आभ्यंतर व्यक्तित्व भी 'स्व' है और बाह्य व्यक्तित्व भी! 'स्व' का भीतरी केन्द्र आत्मा है, आत्मा के गुण एवं स्वरूप का विकास करना, उसकी गुप्त शक्तियों का उद्घाटन करना, यह 'स्व' का भीतरी विकास है । 'स्व' का दूसरा अर्थ स्वयं, शरीर आदि है। 'स्वयं' का. अर्थात् परिवार, समाज तथा राष्ट्र का पोषण, संरक्षण एवं संवर्धन करना। यही 'स्व' का बाह्यआभ्यंतर संतुलन है। मनुष्य के इस बाह्याभ्यंतर 'स्व' का संतुलन जब बिगड़ जाता है, तब राष्ट्रों में ही क्या, हर परिवार व घर में रावण और दुर्योधन पैदा होते हैं। कंस व
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