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२२४ चिंतन की मनोभूमि कुणिक-से पुत्र जन्म लेते हैं। रामगुप्त और औरंगजेब का उद्भव होता है और तब व्यक्ति और समाज, धर्म और राष्ट्र रसातल की ओर जाते हैं।
जैन दर्शन ने मनुष्य के 'स्व' को, स्वार्थ को बहुत विराट रूप में देखा है और उसके व्यापक विकास की भूमिका प्रस्तुत की है। उसके समक्ष बाह्य और आभ्यंतरदोनों प्रकार से, स्वार्थ की पूर्ति का संकल्प रखा है, किन्तु दोनों के संतुलन के साथ। 'भी' के साथ, न कि 'ही' के साथ। आध्यात्मिक विकास की ओर भी उन्मुख होना है. जीवन में वैराग्य, निस्पहता और आत्मलीनता का विकास भी करना है और परिवार व समाज के उत्तरदायित्वों को भी निभाना है। जीवन में दरिद्र और भिखारी रह कर धर्म-साधना का उपदेश जैन दर्शन नहीं करता। वह तो आपका आभ्यन्तर जीवन भी सुखी व संपन्न देखना चाहता है और बाह्य जीवन भी। इन दोनों का सन्तुलन बनाकर चलना यही वृत्तियों का उदात्तीकरण है, जीवन का ऊर्ध्वमुखी स्रोत है और, यह वह उत्स है, जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने वाली धाराएँ साथ-साथ बहती हैं। बस, यही तो धर्म का मर्म है।
१. यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः, वैशेषिक दर्शन, १
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