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२२२ : चिंतन की मनोभूमि प्रवृत्तियों से आत्मगुणों का अभ्युदय होता है, वह प्रवृत्ति कभी भी बुरी नहीं होती. हेय नहीं होती। किन्तु 'स्वार्थ' का जब आप निम्नगामी अर्थ कर लेते हैं, अपने शरीर
और अपने व्यक्तिगत भोग तक ही उसका अर्थ लेते हैं, तब वह कलुषित अर्थ में प्रयुक्त हो जाता है। उसमें भी एक दृष्टि है यदि आप स्वार्थ के दोनों अर्थ समझते हैं और अनेकांत दृष्टि के साथ इनका प्रयोग करते हैं, तो कोई बात नहीं। 'स्वार्थ' अर्थात् आत्मा के हित में भी, 'स्वार्थ अर्थात् इन्द्रिय व शरीर के हित में भी। इस प्रकार आप 'भी' का प्रयोग करिए। शरीर व इन्द्रियों के भोग को पूरा करना 'ही' यदि लक्ष्य है, तो वह बिल्कुल गलत है, किन्तु यदि इसमें 'भी' लग जाती है, तो कोई आपत्ति नहीं। शरीर के भोगों को भी' यथोचित पूरा करना, इसके साथ धर्म का अवरोध नहीं है, किन्तु इसमें 'ही' के लगते ही धर्म का केन्द्र टूट जाता है, वह एकांतवादी दृष्टिकोण हो जाता है। जैन दर्शन के बहुश्रुत आचार्य भद्रबाहु ने बतलाया है कि धर्म, अर्थ और काम में परस्पर शत्रुता नहीं है, विरोध नहीं है। धर्मानुकूल अर्थ, और काम का जिन धर्म में कतई विरोध नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि साधक शरीर आदि से निरपेक्ष होकर नहीं रह सकता, किन्तु एकांत सापेक्ष भी नहीं हो सकता। उसे आत्मा के केन्द्र पर 'भी' रहना है, और शरीर के केन्द्र पर 'भी' । व्यक्तिगत भोग व इच्छा की भी पूर्ति करनी है, और अनासक्त धर्म की साधना भी.! 'भी' का अर्थ है सन्तुलन! दोनों केन्द्रों का, दोनों पक्षों का संतुलन किए बिना जीवन चल नहीं सकता। दो घोड़ों की सवारीः
एक युवक मेरे पास आया। वह कुछ खिन्न व चिंतित-सा था । बात चली तो उसने पूछा—मैं क्या करूँ, कुछ रास्ता ही नहीं सूझ रहा है ? मैंने कहा... क्या बात है? बोला-माँ और पत्नी में बात-बात पर तकरार होती है, लड़ाई होती है, आप बतलाइए मैं किसका पक्ष लूँ?
मैंने हँसकर कहा "यह बात तुम मुझसे पूछते हो ...? खैर, यदि पक्ष लेना है, तो दोनों का लो, दो पक्षों का संतुलन रख कर ही ठीक निर्णय किया जा सकता है। पक्षी भी आकाश में उडता है, तो दोनों पंख बराबर रखकर ही उड़ सकता है, एक पक्ष से गति नहीं होती। यदि तुम पत्नी का पक्ष लेते हो, तो माँ के गौरव पर चोट आती है, उसका अस्तित्व खतरे में पड़ता है, और माँ का पक्ष लेते हो, तो पत्नी पर
१. धम्मो अत्थो कामो, भिन्नते पिंडिया पडिसवत्ता। जिणवयणं उत्तिन्ना, असवत्ता होंति नायव्वा॥
—दशवे., नि. २६२ तुलना करें :(क) भोक्ता च धर्माविरुद्धान् भोगान् । एवमुभौ लोकावमिजयति
- आप स्तम्त्र. २।८।२०। २२-२३. (ख) धर्माविरुद्धः कामोऽस्मि
-गीता (ग) धर्मार्थावरोधेन कामं सेवेत।
-कौटिल्य अर्थ. ११७
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