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________________ अंतरंग असंगता : मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि मन की भूमिका ऐसी होनी चाहिए कि वह शरीर, इन्द्रिय, धन आदि को सत्कर्म में नियोजित कर सके । वृत्तियों को उदात्त रूप दे सके ! शरीर, इन्द्रिय आदि तो प्रारब्ध के भोग हैं, रथ के घोड़े हैं, इन्हें जहाँ भी जोड़ा जाए, वहीं जुड़ जाएँगे और जिधर भी मोड़ा जाए, उधर ही मुड़ जाएँगे । किधर मोड़ना है, यह निर्णय मन को करना होगा। यदि राग-द्वेष की ओर इनकी गति होगी, तो वह बंधन का कारण होगा। यदि असंगवृत्ति और आत्माभिमुखता की ओर गति होगी, तो वह मुक्ति का कारण बन जाएगी। जीवन में 'स्व' का विकास २२१ "बन्धाय विषयासक्ति मुक्त्यै निर्विषयं मनः "१ भारतीय चिंतन कहता है कि एक चक्रवर्ती सम्राट् जितना परिग्रही हो सकता है, एक गली का भिखारी भी, जिसके पास भीख माँगने के लिए फूटा ठीकरा भी नहीं है, उतना ही परिग्रही हो सकता है। बाहर में दोनों के परिग्रह की कोई तुलना नहीं है, आकाश-पाताल का अन्तर है, किन्तु भीतर में उस भिखारी की आसक्ति, मोहमुग्धता उस सम्राट् से कम नहीं है, बल्कि कुछ ज्यादा ही हो सकती है। भरत चक्रवर्ती, जिसके लिए कहा गया है कि उसका जीवन जल में कमल की भाँति था; चक्रवर्ती के सिंहासन पर बैठ कर भी उसका मन ऋषि का था, सच्चे साधक का मन था । अतः वह शीशमहल में प्रविष्ट होता है एक चक्रवर्ती के रूप में, और निकलता है 'अर्हन्त' केवली के रूप में। कितना विलक्षण जीवन है ! यह स्थिति जीवन के अंतरंग चित्र को स्पष्ट करती है, मन की असंगता का महत्त्व दर्शाती है। मन को राग-द्वेष से मुक्त करने के लिए इस आन्तरिक असंगता का ही महत्व है। स्वार्थ : 'ही' या 'भी': शरीर और इन्द्रिय, जाति और गोत्र, धन और प्रतिष्ठा- ये सब अघाति हैं, आत्मस्वरूप की घात इनसे नहीं होती, साधना में किसी प्रकार की बाधा इनसे नहीं आती। जो बाधक तत्व है, वह मोह है, मन की रागद्वेषात्मिका वृत्तियाँ हैं । इन वृत्तियों का यदि आप उदात्तीकरण कर देते हैं, इनके प्रवाह को ऊर्ध्वमुखी बना देते हैं, तो ये आपके स्वरूप के अनुकूल हो जाती हैं, आपकी साधना में तेजस्विता आ जाती है। आप अपनी स्थिति में आ जाते हैं। आत्मा का जो ज्योतिर्मय स्वरूप है, उस स्थिति के निकट पहुँच जाते हैं और यदि इनके प्रवाह को नहीं रोक पाते हैं, तो पतन और बंधन निश्चित हैं। आप लोग 'स्वार्थ' शब्द का प्रयोग करते हैं । किन्तु स्वार्थ का अर्थ क्या है ? स्वार्थ की परिभाषा है 'स्व' का अर्थ ! 'स्व' का मतलब आत्मा है, आत्मा का जो लाभ एवं हित है, वह है स्वार्थ !' स्वार्थ की यह कितनी उदात्त परिभाषा है ! जिन १. मैत्रायणी आरण्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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