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_ जीवन में 'स्व' का विकास
मनुष्य के मन में राग और द्वेष की दो ऐसी वृत्तियाँ हैं, जो उसके सम्पूर्ण जीवन पर कुहरे की तरह छाई हुई हैं. इनका मूल बहुत गहरा है, साधारण साधक इसका समुच्छेदन नहीं कर सकता। शास्त्र में इनको आन्तरिक दोष' (अज्झत्थ दोस) कहा गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि इनकी जड़ें हमारे मन की बहुत गहराई में रहती हैं, वातावरण का रस पाकर विषबेली की तरह बढ़ती हुई ये व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तक को आवृत कर लेती हैं।
बीज रूप में ये वृत्तियाँ हर सामान्य आत्मा में रहती हैं, किन्तु जब कभी ये प्रबल हो जाती हैं, अपनी उग्रतम स्थिति में आ जाती हैं, तो व्यक्ति को विक्षिप्त बना देती हैं, और व्यक्ति अपने कर्त्तव्य, मर्यादा एवं आदर्श को भूल बैठता है, एक प्रकार से अन्धा हो जाता है। स्वकेन्द्रित राग :
राग वृत्ति इतनी गहरी और सूक्ष्म वृत्ति है कि उसके प्रवाह को समझ पाना कभी-कभी बहुत कठिन हो जाता है। मनुष्य का यह सूक्ष्मराग कभी-कभी अपने धन से, शरीर से, भोग-विलास से , प्रतिष्ठा और सत्ता से चिपट जाता है, तो वह मनुष्य को रीछ की तरह अपने पंजे में जकड़ लेता है। इसीलिए राग को निगड़ बन्धन कहा गया है।
कभी-कभी मैं सोचता हूँ, राग और द्वेष एक प्रकार का वेग है, नशा है। जब यह नशा मन-मस्तिष्क पर छा जाता है, तो फिर मनुष्य पागल हो जाता है। वह कुछ सोच नहीं सकता, विचार नहीं सकता। बस, वह नशे की मादक धारा में बहता जाता. है, प्रवाह में मुर्दे की तरह। यह प्रवाह अधोमुखी होता है, मनुष्य को नीचे से नीचे की ओर धकेलता ले जाता है, और यह अंत में किस अंधगर्त में ले जाकर पटकेगा, इसकी कोई कल्पना भी नहीं हो सकती।
जब मैं युद्धों से भरे विश्व के इतिहास को देखता हूँ, राष्ट्र और समाज के उत्पीडित वर्तमान जीवन को देखता हूँ, धर्म और सम्प्रदायों के द्वन्द्व और संघर्ष को देखता हूँ, पारिवारिक कलह और व्यक्तिगत मनोव्यथाओं के मूल को खोजता हूँ, तो बस राग और द्वेष की उथल-पुथल के सिवाय और कोई तीसरा कारण नहीं मिलता। कहीं राग की प्रबल वृत्तियाँ प्रताड़ित कर रही हैं, तो कहीं द्वेष की उग्र ज्वालाएँ धधक रही हैं। किसी में देह का राग प्रबल होता है, तो किसी में धन का, किसी में सत्ता का, तो किसी में प्रतिष्ठा का।
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