SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ |२१४ चिंतन की मनोभूमि गुणों का स्वागत करना, उनके विकास को प्रोत्साहित करना, हमारी आध्यात्मिक चेतना की ऊर्ध्वमुखी वृत्ति है। भगवान् महावीर ने इस वृत्ति को राग तो कहा है, पर शुभ राग कहा है और इसे प्रोत्साहित किया है। आगमों में जहाँ महावीर के श्रावकों का वर्णन किया गया है, वहाँ एक विशेषण आता है, “अट्ठिमिज्ज पेमाणुराग रत्ते" उनकी अस्थि और मज्जा तक भी धर्म के प्रेमानुराग से रंजित थी ! यह निश्चित है कि यह 'प्रेमानुराग' वीतराग धर्म तो नहीं है, फिर भी धार्मिक की उल्लेखनीय विशेषता है। अतः इसका अर्थ है-अनुराग, गुणानुराग, धर्मानुराग और, यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वीतरागता के नाम पर यदि हम किसी उभरते हुए व्यक्तित्व को देखकर भी मौन रहते हैं, किसी सद्गुणों के कल्पवृक्ष को लहलहाते देख कर भी उदासीन बने रहते हैं, तो मैं मानता हूँ, हमारी चेतना अभी कुण्ठित है, उसका प्रवाह अधोमुखी है और एक वृत्ति जीवन एवं जगत् के लिए घातक है। ___मैं आपसे स्पष्ट कह दूँ कि जब भी किसी होनहार व्यक्तित्व में विकास की अनेक संभावनाओं पर दृष्टि डालता हूँ, तो मुझे उसमें सर्जना की अनेक मौलिक कल्पनाएँ छिपी मिलती हैं। इसमें बौद्धिक विलक्षणता, तटस्थ चिंतन तथा सत्यानुलक्षी स्पष्टवादिता आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ निहित पाता हूँ, जो मेरे मन को प्रमुदित कर देती हैं। मानव की यही महान् निष्ठा है, शुभ वृत्ति है कि वह कहीं किसी श्रेष्ठता को, अच्छाई को अंकुरित होता देखे तो सहज सद्भाव से उसके प्रति आकृष्ट हो; उसको विकसित होता देखे, तो सहज प्रसन्नता से झूम उठे।। ___कभी-कभी सोचता हूँ, यदि हमारे श्रमण-श्रमणी वर्ग में यदि व्यवहार की सरलता और पवित्रता बनी रहे, तो हम अपने आदर्शों को बहुत कुछ उजागर कर सकते हैं। ऐसे श्रेष्ठ जीवन के प्रति अनुराग होना एक सहज बात है। मैं तो कहूँगा कि यदि किसी में गुणानुराग दृष्टि है, तो वह अवश्य ही एक पवित्र अनुराग की भावना से बँध जाएगा। जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा-धर्म और अध्यात्म की भूमिका पर खड़े होकर हमने कुछ बहुत ऊँची बातें सोची हैं। जीवन में निरपेक्षता और वीतरागता के आदर्श भी खड़े किए हैं, किन्तु वह भूमिका इतनी ऊँची है कि हम यों ही छलाँग लगाकर वहाँ तक नहीं पहुँच सकते। इस स्थिति में, जबकि वीतराग नहीं हो जाते हैं, "राग का क्या करना ?" इसे सोचने-समझने की भूल भी हमने की है। हम अपने देह, परिवार और सम्प्रदाय के निम्न अनुरागों में तो फँस गए हैं, किन्तु राग के जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy