SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राग का ऊर्ध्वकरण २१३ बाधक बन रहा है । गौतम यह सब कुछ जानकर भी भगवान् के प्रति अपना प्रेमराग छोड़ नहीं पाए। और, आप देखते हैं कि गौतम का वह अनुराग भगवान् के निर्वाण के समय इतना प्रबल हो जाता है कि आँसुओं के रूप में बाहर बह आता है । इसे हमारे कुछ साथी मोह बताकर एकान्त अशुभ एवं दूषित कह सकते हैं, परन्तु मैं तो इसे मोह मान कर भी एकान्त अशुभ नहीं मान एकता । यह भक्ति-विभोर भक्त - हृदय की अमुक अंश में शुभ परिणति है । यह मानव हृदय की एक स्नेहात्मक स्थिति है, गुणानुराग की वृत्ति है । आँसू केवल शोक के ही आँसू नहीं होते, भक्ति और प्रेम के भी आँसू होते है, करुणा के भी आँसू होते हैं। मनुष्य समाज अकेला नहीं जीता, उसके साथ परिवार होता है, समाज होता है, संघ होता है । वह सूखे वृक्ष की भाँति निरपेक्ष तथा निश्चेष्ट रह कर कैसे जी सकता है ? उसके मन में पास-पड़ोस की घटनाओं की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। यदि आपकी चेतना का ऊर्ध्वमुखी विकास हो रहा है तो आप किसी को प्रगतिपथ पर बढ़ते देखकर, किसी के व्यक्तित्व को विकसित होते देखकरं, मुस्करा उठेंगे, दूसरों की प्रसन्नता से प्रसन्न हो जाएँगे, दूसरों के गुणों पर कमल पुष्प की भाँति प्रफुल्ल हो जाएँगे और यदि आपकी चेतना कुण्ठाग्रस्त है, उसका प्रवाह अधोमुखी है, तो आप ईर्ष्या और डाह से जल उठेंगे। किसी के गुणों की प्रशंसा सुनकर मन ही मन तिलमिला उठेंगे, जैसे सौ-सौ बिच्छुओं के एक साथ डंक लग गये हों ! किसी को बढ़ते देखकर उस पर व्यंग्य करेंगे, उसे गिराने की चेष्टा करेंगे। तब अब आप सोचिए, इन दोनों स्थितियों में कौनसी स्थिति श्रेष्ठ है ? प्रमोद से जीना, दूसरों के गुणों और विशेषताओं पर प्रसन्नतापूर्वक जीना - यह ठीक है, या रातदिन ईर्ष्या- डाह से तिलमिलाते रहना ? जब तक वीतराग दशा नहीं आती है, तक इन दोनों में से एक मार्ग चुनना होगा। पहला मार्ग है, शुभ राग का और दूसरा मार्ग है, अशुभ राग यानी द्वेष का । राग जब अधोमुखी होता है, तो द्वेष का रूप ले लेता है, इसलिए अशुभ राग या द्वेष में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता । गुणों का आदर : प्रमोद भावना : जैसे साहित्य में चार भावनाएँ आती हैं, उन चार भावनाओं में दूसरी भावना है- "गुणिषु प्रमोदं " गुणी के प्रति प्रमोद - प्रसन्नता की भावना ! जैन दर्शन की यह उच्चतम जीवन दृष्टि है। हम अपने में, अपने परिपार्श्व में कहीं भी, किसी चेतना को विकसित होते देखकर, कहीं भी ज्योति को चमकते देखकर, उसके प्रति प्रसन्नता अनुभव करें, प्रमोद से पुलक उठें- यह जीवन में सबसे बड़ा आनन्द का मार्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy