SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | २१२/ चिंतन की मनोभूमि तो वह उसे प्राप्त कर सके और न इधर राग को पवित्र बनाकर दूसरों की सेवासहयोग ही करने का प्रयत्न करे। यह स्थिति बड़ी दुविधापूर्ण होगी। एक बार सुदूर प्रान्त के कुछ साधु लुधियाना (पंजाब) में पधारे। एक मुनिजी ने, जो अपने को बड़े वैरागी और आध्यात्मवादी बताते थे, व्याख्यान में आत्मा और पुदगल की बड़ी लंबी-चौड़ी बातें कहीं ! कहा "पुद्गल परभाव है, आत्मा का शत्रु है। इसे लात मार दो ! तभी मुक्ति होगी।" . व्याख्यान देकर उठे, पात्र संभाले और पहले से विराजित एक स्थानीय बुजुर्ग संत से बोले-तपसीजी ! कुछ ऐसे घरों में ले चलो, जहाँ पुद्गल की साता हो ! (मतलब कि आहार पानी अच्छा साता का ही मिल सके)।" तपसीजी मुस्करा कर बोले "भाई ! अभी तो आप पुद्गल को लात मार रहे थे, अब पुद्गल की साता की बात करने लगे, यह क्या ?'' यही तो वीतरागता का नाटक है। जब हम जीवन में अपने लिए वीतरागी नहीं बन सकते, अपने शरीर की साता और मोह को नहीं छोड़ सकते, तो फिर केवल दूसरों के प्रति उदासीन और निस्पृह होने की बात कहने से क्या लाभ है ? जीवनव्यवहार में सरलता आनी चाहिए, सचाई को स्वीकार करने का साहस होना चाहिए। और, यह मानना चाहिए कि जिन आदर्शों तक पहुँचने में हमें अभी तक कठिनाई अनुभव होती है, तो दूसरों को भी अवश्य ही होती होगी। फिर उस कठिनाई के बीच का मार्ग क्यों नहीं अपनाया जाए ? धर्म का मुख्य रूप वीतरागता है, वह लक्ष्य में रहना चाहिए। उस ओर यात्रा चालू रखनी चाहिए। परन्तु जब तक वह सहज भाव से जीवन में न उतरे, तब तक धर्म का गौण रूप शुभभाव भी यथाप्रसंग होता रहना चाहिए। निर्विकल्पता न आए. तो शुभ विकल्प का ही आश्रय लेना चाहिए, अशुभ विकल्प से बचना चाहिए। गणधर गौतम की बात अभी हमारे सामने है। इतना बड़ा साधक, तपस्वी जिसके लिए भगवती सूत्र में कहा है-'उग्गतवे घोरतवे दित्ततवे' तपस्वियों में भी जो उत्कृष्ट थे और ज्ञानियों में भी ! उन्होंने जब अपने ही शिष्यों को केवली होते देखा, तो वे मन में क्षोभ और निराशा से क्लांत हो गए और सोचने लगे कि यह क्या ? मुझे अभी भी केवल ज्ञान नहीं हो रहा है और मेरे शिष्य केवली हो रहे हैं, मुक्त हो रहे हैं ? भगवान महावीर ने गौतम के क्षोभ को शान्त करते हुए कहा-"गौतम, ! तुम्हारे मन में अभी तक मोह और स्नेह का बंधन है।" गौतम ने पूछा-"किसके साथ ?'' भगवान् ने कहा-मेरे प्रति, मेरे व्यक्तित्व के प्रति तुम्हारे मन में एक सूक्ष्म अनुराग, जो जन्म-जन्मान्तर से चला आ रहा है, वह राग-स्नेह ही तुम्हारी मुक्ति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy