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• राग का ऊर्ध्वकरण २११
साधु का जो विधिनिषेधात्मक क्रियारूप आचार धर्म है, वह क्या है ? दान, दया, सेवा, उपासना और भक्ति-पूजा के विधि विधान क्या हैं ? क्या यह वीतराग धर्म है ? किन्तु वीतरागता में तो सहज दशा होती है । वहाँ विधिनिषेधों के विकल्पों की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में विचरण करती है । वहाँ इन्द्रियनिग्रह किया नहीं जाता, स्वतः हो जाता है। इसलिए वह इन्द्रियातीत (नो इन्द्रिय) दशा है। फिर इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, देव, गुरु, धर्म की भक्ति और पूजाप्रार्थना आदि के विकल्प वीतराग दशा कैसे हो सकते हैं ? आचार्य कुन्दकुन्द जैसे आध्यात्मवादी चिंतकों ने तो इन सब क्रियाओं को शुभराग माना है। इसका अर्थ यह है कि यह सब राग का ऊर्ध्वकरण है, राग की शुभदशा है। अहिंसा पर किसी को तभी स्थिर किया जा सकेगा, जब उसके मन में स्नेह एवं करुणा की धारा बहती होगी । सत्य और अचौर्य की प्रेरणा तभी कामे कर सकेगी, जब आत्मविश्वास और नैतिकनिष्ठा जागृत होगी। मानव जाति का आज जो विकास हुआ है, उसके चिंतन में जो उदात्तता आई है, वह निश्चित ही उसके स्नेह, करुणा और शुभराग की परिणतियाँ हैं। यदि मनुष्य के हृदय में शुभराग की वृत्ति नहीं होती, तो शायद मनुष्य, मनुष्य भी नहीं रह पाता। फिर आप कहाँ होते ? हम कहाँ होते ? कौन किसके लिए होता ?
एक बार मैंने देखा - एक चिड़िया घोंसले में बैठी अपने बच्चों की चोंच में दाना दे-देकर उन्हें खिला रही थी । इधर-उधर से बड़ी मेहनत करके वह दाना लाती और बच्चों के मुँह में बड़े प्यार से डालती। मेरे पास ही खड़े एक मुनिजी ने पूछा -- यह ऐसा क्यों करती है ? क्या मतलब है इसका ?
मैंने हँसकर कहा – मतलब चिड़िया से मत पूछो, इन्सान से पूछो। मतलब की भाषा उसी के पास है, वहाँ तो एक प्राकृतिक स्नेह-राग है, जो प्रत्येक जीवधारी को एक-दूसरे के लिए उपकृत करता है। यह स्नेह ही प्राणी को एक-दूसरे के निकट लाता है, एक से अनेक बनाता है, परिवार और समाज के रूप में उसे एक रचनात्मक व्यवस्था से बाँधता है। यह स्नेह भले ही मोह का रूप है. पर मोह से हम कहाँ मुक्त हुए हैं ? जहाँ पारिवारिक जीवन है, एक-दूसरे के साथ रागात्मक सम्बन्ध है, वहाँ मोह तो है ही । परिवार, समाज, संघ और समय सभी इस मोह से बँध हैं। हाँ, जहाँ यह मोह उदात्त बन जाता है, स्नेह व्यापक बन जाता है, वहाँ उसकी अपवित्रता कम हो जाती है, वह मोह, वह राग शुभ के रूप में बदल जाता है। वीतरागता का नाटक :
वीतरागता हमारा मुख्य धर्म है, महान् ध्येय है। किन्तु जब तक वह वीतरागता नहीं आती है, तब तक हमें राग को अधिकाधिक पवित्र एवं उदात्त बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने निज के दैहिक स्वार्थ और मोह से ऊपर उठकर उसको मानव चेतना और समग्र जीव-चेतना तक व्यापक बनाना चाहिए। अन्यथा साधक की यह महान् भूल होगी कि वह वीतरागता का नाटक तो खेलता रहे, पर न
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