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________________ राग का ऊर्वीकरण २०९ परलोक की भी। लोक और परलोक में कोई दो भिन्न सत्ता नहीं हैं। जो आत्मा इस लोक में है, वही परलोक में भी जाती है, जो पूर्व जन्म में थी, वही इस जन्म में आई है। इसका मतलब है—पीछे भी तुम थे, यहाँ भी तुम हो और आगे भी तुम रहोगे। तुम्हारी सत्ता अखण्ड और अनंत है। तुम्हारा वर्तमान इहलोक है, तुम्हारा भविष्य परलोक है। जिन्दगी जो नदी के एक प्रवाह की भाँति क्षण-क्षण में आगे बहती जा रही है, वह लोक-परलोक के दो तटों को अपनी करवटों में समेटे हुए है। जरा सूक्ष्मदृष्टि एवं तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाए, तो जीने-मरने पर ही लोक-परलोक की व्यवस्था नहीं है। वर्तमान जीवन में ही लोक-परलोक की धारा बह रही है। जीवन का हर पहला क्षण लोक है, और हर दूसरा क्षण परलोक। लोक-परलोक इस जिन्दगी में क्षण-क्षण में आ रहे हैं। हमने लोक-परलोक को बाजारू शब्द बना दिये और यों ही गोटी की तरह फेंक दिया है खेलने के लिए। यदि इन शब्दों का ठीकठीक अर्थ समझा जाए, लोक-परलोक की सीमाओं का सही रूप समझा जाए, तो जो भ्रांतियाँ आज हमारी बुद्धि को गुमराह कर रही हैं, वे नहीं कर पाएँगी। हम जो लोक-परलोक को सुधारने की बात कहते हैं, उसका अर्थ है, वर्तमान और भविष्य दोनों ही सुधरने चाहिए। यदि वर्तमान ही नहीं सुधरा, तो भविष्य कैसे सुधरेगा? - "लोक नहीं सुधरा है यदि तो, कैसे सुधरेगा परलोक ?" भगवान् महावीर ने 'आराहए लोकमिणं तहा परं' की जो घोषणा की, वह न परलोकवादियों को चुनौती थी और न लोकवादियों को ही चुनौती थी, बल्कि एक स्पष्ट, अभ्रांत दृष्टि थी, जो दोनों तटों को एक साथ स्पर्श करती हुई चल रही थी। कितनी बार हमारे सामने वीतरागता का प्रश्न आता है, उसकी पर्याप्त चर्चाएँ होती हैं; किन्तु प्रश्न यह है कि यह वीतरागता क्या है ? यह लोक, या परलोक क्या है ? इसका सम्बन्ध किससे है ? किसी से भी तो नहीं है। वीतरागता लोक-परलोक से परे है, वह लोकातीत है। भगवान् महावीर ने इस संदर्भ में कहा है-"तुम लोकपरलोक की दृष्टि से ऊपर उठकर 'लोकातीत' दृष्टि से क्यों नहीं सोचते ? काल प्रवाह में अपनी अखण्ड सत्ता की अनुभूति को क्यों नहीं अनुभव करते? वर्तमान और भविष्य में तुम्हारी सत्ता विभक्त नहीं है, वह एक है, अखण्ड है, अविच्छिन्न है फिर अपने को टुकड़ों में क्यों देखते हो?" जैन-दर्शन एक ओर लोक-परलोक की आराधना की बात कहता है, दूसरी ओर लोक-परलोक के लिए साधना करने का निषेध भी कर रहा है। वह कहता है"नो इह लोगट्ठयाए, नो परलोगट्ठयाए..." न इस लोक के लिए साधना करो, न परलोक के लिए ही। लोक-परलोक यह राग-द्वेष की भाषा है, आसक्ति का रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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