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२०८ चिंतन की मनोभूमि फूल की तरह मुस्कराते हैं, फव्वारे की तरह प्रेम की फुहारें बरसाते हैं, वे ही घर में आकर रावण की तरह रौद्र बन जाते हैं। क्रोध की आग उगलने लगते हैं। धर्म स्थानक में या मंदिर में जिन्हें देखने से लगता है कि ये बड़े त्यागी-वैरागी हैं, भक्त हैं, संसार से इन्हें कुछ लेना-देना नहीं, निस्पृहता इतनी है कि जैसे अभी मुक्ति हो जाएगी, वे ही व्यक्ति जब वहाँ से बाहर निकलते हैं, तो उनका रूप बिल्कुल ही बदल जाता है, इस धर्म की छाया तक उनके जीवन पर दिखायी नहीं देती !
___ मैं सोचता हूँ, यह क्या बात है? जीवन पर इतना द्वैत क्यों आ गया। साधना में यह बहुरूपियापन क्यों चल पड़ा? लगता है, इस सम्बन्ध में सोचने-समझने की कुछ भूलें हुई हैं, वे भूलें शायद आपने नहीं, हमने की होंगी और नई नहीं, वे बहुत पुरानी होंगी। वे काफी पहले से चली आ रही हैं। धर्म : केवल परलोक के लिए?
मैं जब इन बँधी-बँधाई मान्यताओं और चली आ रही परम्पराओं की ओर देखकर पूछता हूँ-“धर्म किसलिए है ?" तो एक टकसाली उत्तर मिलता है धर्म परलोक सुधारने के लिए है ? "यह सेवाभक्ति, दान-पुण्य किसलिए ? परलोक के लिए ?" हम बराबर कहते आये हैं "परलोक के लिए कुछ जप-तप कर लो, अगले जीवन के लिए कुछ गठरी बाँध लो।" मंदिर के घंटे-घड़ियाल केवल परलोक-सुधार का उद्घोष करते हैं, हमारे औंधेमुखपत्ती जो परलोक-सुधार की नाम पट्टियाँ बन गये हैं। जिधर देखो, जिधर सुनो, परलोक की आवाज इतनी तेज हो गई है कि कुछ और सुनाई ही नहीं देता। एक अजीब कोलाहल एक अजीब भ्रांति के बीच हम इस जीवन को जी रहे हैं, केवल परलोक के लिए !
हम आस्तिक हैं, पुनर्जन्म और परलोक के अस्तित्व में हमारा विश्वास है, किन्तु इसका यह मतलब तो नहीं कि इस परलोक की बात को इतने जोर से कहें कि इस लोक की बात कोई सुन ही नहीं सके। परलोक की आस्था में इस लोक के लिए आस्था-हीन होकर जीना, कैसी आस्तिकता है ?
मेरा विचार है, यदि परलोक को देखने-समझने की ही आपकी दृष्टि बन गई है, तो इस जीवन को भी परलोक क्यों नहीं समझ लिया जाए ? लोक-परलोक सापेक्ष शब्द हैं। पुनर्जन्म में यदि आपका विश्वास है, तो पिछले जन्म को भी आप अवश्य मानते हैं। उस पिछले जीवन की दृष्टि से क्या यह जीवन परलोक नहीं है ? पिछले जीवन में आपने जो कुछ साधना-आराधना की होगी, उस जीवन का वह परलोक यही तो है। फिर आप इस जीवन को भूल क्यों जाते हैं ? परलोक के नाम पर इस जीवन की उपेक्षा, अवगणना क्यों कर रहे हैं ? लोकातीत साधना:
भगवान् महावीर ने साधकों को सम्बोधित करते हुए कहा था-"आराहए लोगमिणं तहा परं"-साधको ! तुम इस लोक की भी आराधना-साधना करो,
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