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________________ राग का ऊर्वीकरण आध्यात्मिक साधना के सम्बन्ध में, धर्म की विधि एवं मर्यादा के सम्बन्ध में सोचते हुए हमने कुछ भूलें की हैं। अनेक प्रकार की भ्रांतियों से हमारा चिंतन दिग्मूढ़-सा हो गया है, ऐसा मुझे कभी-कभी लगता है। साधना का प्रवाह उस झरने की भाँति अपने मूल उद्गम पर बहुत ही निर्मूल और स्वच्छ था, किन्तु ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया, उसमें भ्रांतियों का कूड़ा-कचरा मिलता गया और प्रवाह में एक प्रकार की मलिनता आती गई। आज उसका गैंदला पानी देख कर कभी-कभी मन चौंक उठता है और सोचने को विवश हो जाता है कि क्या यह कूड़ा-कचरा निकाला नहीं जा सकता? इस प्रवाह की पवित्रता और निर्मलता को कचरा कब-तक ढंके. रखेगा? इस सम्बन्ध में समय-समय पर बहुत कुछ कहता रहा हूँ। इसके लिए पासपड़ोस की दूसरी परम्पराओं और चिंतन-शैलियों की टीका-टिप्पणी भी मैं करता रहा हूँ, उनकी मलिनता पर चोट. करने से भी मैं नहीं हिचकता। परन्तु इसकी पृष्ठभूमि में मेरा कोई साम्प्रदायिक आग्रह या दुराग्रह की मनोवृत्ति नहीं है। यही कारण है कि भूलों एवं भ्रान्तियों के लिए अपनी साम्प्रदायिक परम्परा और-विचारधारा पर भी मैंने काफी कठोर प्रहार किए हैं। विचार-प्रवाह में जहाँ मलिनता हो, उसे छिपाया नहीं जाए, फिर यह चाहे अपने घर में हो या दूसरे घर में ! मैं इस विषय में बहुत ही तटस्थता से सोचता हूँ और मलिनता के प्रक्षालन में सदा उन्मुक्त भाव से अपना योग देता रहा हूँ। साधना में द्वैत क्यों? हमें सोचना है कि जिसे हम साधना कहते हैं, वह क्या है ? जिसे हम धर्म समझते हैं, वह क्या है ? वह कहाँ है ? किस रूप में चल रहा है और और किस रूप में चलना चाहिए? एक सबसे विकट बात तो यह है कि हमने साधना को अलग-अलग कठघरों में खड़ा कर दिया है। उसके व्यक्तित्व को, उसकी आत्मा को विभक्त कर दिया है। उसके समान रूप को हमने नहीं देखा। टुकड़ों में देखने की आदत बन गई है। लोग घर में कुछ अलग तरह की जिन्दगी जीते है, और परिवार में कुछ अलग तरह की। घर के जीवन का रूप कुछ और है और मंदिर, उपाश्रय, धर्म-स्थानक के जीवन का रूप कुछ और ही है। वे अकेले में किसी और ढंग से जीते हैं और परिवार एवं समाज के बीच किसी दूसरे ढंग से। मैंने देखा है, समाज के बीच बैठकर जो व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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