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२०४ | चिंतन की मनोभूमि
और दुर्योधन छोटा । एक ओर बलदेव बड़े थे और दूसरी ओर श्रीकृष्ण छोटे । यदि बड़ा बनना हो तो युधिष्ठिर का आदर्श अपनाओ और यदि छोटा बनना हो तो श्रीकृष्ण का । कृष्ण ने छोटे होकर भी जो महत्त्वपूर्ण कार्य किये, वे उन्हें महान् बना देते हैं। बड़ा भाई बनना चाहें तो राम का उदाहरण भी सम्मुख है। बड़ा बनने के साथ उसका उत्तरदायित्व भी बहुत बड़ा हो जाता है। छोटे भाई के रूप में लक्ष्मण और भरत का चरित्र भी बहुत अनुकरणीय है। इन उज्ज्वल आदर्श परम्पराओं का एक दूसरा मलिन पक्ष भी हमारे समक्ष आता है। मुगल इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैंजहाँ छोटे भाई ने बड़े भाई को और बड़े भाई ने छोटे भाई को खून से नहलाया है । राजा श्रेणिक का भी उदाहरण सामने आता है कि जहाँ पुत्र ने पिता को कारागृह में बन्द कर दिया। इधर राम का भी आदर्श है कि जिसने सिर्फ पिता के आदेश का पालन करने के लिए ही चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पिता-पुत्र के आदर्श, भाई-भाई के आदर्श और पति-पत्नी के आदर्श की सार्थकता इसी में है कि उन्हें जीवन में प्रामाणिकता के साथ उतारा जाय। आदर्श की श्रेष्ठता देश और काल से, जाति और वंश परम्परा से नहीं नापी जाती, बल्कि वह नापी जाती है, अन्दर की सच्चाई से, अन्दर की प्रामाणिकता से ।
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इन आदर्शों का पालन तभी हो सकता है, जब जीवन में भय और प्रलोभनों पर विजय पाने की शक्ति हो । प्राणी मात्र इन्हीं दो पाटों के बीच पिसता आ रहा है। जितने विग्रह हुए हैं, लड़ाइयाँ हुई हैं, उन सबके मूल में ये ही दो कारण रहे हैं। जिस साधक ने इन पर विजय प्राप्त कर ली, वह निश्चय ही अपनी साधना के लक्ष्य को सफल कर चुका है। संसार के बड़े-बड़े सम्राट् उसके चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। यह त्यागियों का शासन अजेय शासन है। वह कभी समाप्त नहीं हो सकता । वहाँ छोटे-बड़े की प्रतिष्ठा नहीं, त्याग की प्रतिष्ठा होती है। जिसका त्याग अधिक तेजस्वी होता है, वही महान् होता है। यदि साधना का वह तेज गृहस्थ जीवन में निखर सकता है तो वह जीवन भी महान् हो सकता है और साधु का वेष पहन कर भी यदि साधुता का स्पर्श नहीं हुआ, तो उस वेष से कुछ भी लाभ नहीं ही सकता । दो आदर्श :
वाराणसी में संत कबीर साधना में लगे थे। वह बाहर में वस्त्रों का ताना-बाना बुन रहे थे, किन्तु अन्दर में साधना का ताना-बाना बुनने में संलग्न थे। एक ब्राह्मण का पुत्र अनेक विद्याओं का अध्ययन करके पच्चीस वर्ष की अवस्था में जब जीवन के नए मोड़ पर आया, तो उसने विचार किया कि वह कौन से जीवन में प्रवेश करे, साधु बने या गृहस्थाश्रम में जाए ? अपनी इस उलझन को उसने कबीर के समक्ष रखा। कबीर उस समय ताना पूर रहे थे। प्रश्न सुनकर भी उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। युवक ने कुछ देर तक चुप रहकर प्रतीक्षा की, किन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। उसने फिर अपना प्रश्न दुहराया, लेकिन कबीर ने फिर भी जवाब नहीं दिया। तभी कंबीर ने पत्नी को
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