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________________ २२ धर्म का अन्तर्हृदय मानव जीवन एक ऐसा जीवन है, जिसका कोई भौतिक मूल्य नहीं आँका जा सकता। बाहर में उसका जो एक रूप दिखाई देता है, उसके अनुसार वह हड्डी, माँस और मज्जा का एक ढाँचा है, गोरी या काली चमडी से ढंका हुआ है, कुछ विशिष्ट प्रकार का रंग-रूप है, आकार-प्रकार है। किन्तु यही सब मनुष्य नहीं है। आँखों से जो दिखाई दे रहा है, वह तो केवल मिट्टी का एक खिलौना है, एक ढाँचा है, आखिर कोई न कोई रूप तो इस भौतिक शरीर का होता ही। भौतिक तत्त्व मिलकर मनुष्य के रूप में विकसित हो गए। आँखें स्वयं भौतिक हैं। अत: वे मानव के शरीर से सम्बन्धित भौतिक रूप को ही देख पाती हैं। अन्तर की गहराई में देखने की क्षमता आँखों में नहीं है। ये चर्म-चक्षु मनुष्य के आन्तरिक स्वरूप का दर्शन और परिचय नहीं करा सकते। शास्त्र में ज्ञान दो प्रकार के बताए गए हैं. एक ऐन्द्रिक ज्ञान और दसरा अतीन्द्रिय ज्ञान। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होता है। जो भौतिक है, उसे भौतिक इन्द्रियाँ देख सकती हैं। पर, इस भौतिक देह के भीतर जो चैतन्य का विराट रूप छिपा है, जो एक अखण्ड लौ जल रही है, जो परम देवता कण-कण में समाया हुआ है, उसे देखने की शक्ति आँखों में कहाँ है ? मनुष्य का जो सही रूप है, वह इतना ही नहीं है कि वह शरीर से सुन्दर है और सुगठित है ! एक आकृति है, जो सजी-सँवरी है। यदि यही कुछ मनुष्य होता है, तो रावण, दुर्योधन और जरासंध भी मनुष्य थे। उनका शरीर भी बड़ा बलिष्ठ था, सुन्दर था। पर, संसार ने उन्हें बड़े लोगों में गिनकर भी सत्पुरुष नहीं माना, श्रेष्ठ मनुष्य नहीं कहा। पुराणों में रावण को राक्षस बताया गया है। दुर्योधन और जरासंध को भी उन्होंने मानव के रूप में नहीं गिना। ऐसा क्यों ? इसका कारण है, उनमें आत्मिक सौन्दर्य का अभाव ! देह कितनी सुन्दर हो, पर, जब तक उसके अन्दर सोई हुई आत्मा नहीं जागती है, आत्मा का दिव्य रूप नहीं चमकता है, तब तक वह देह सिर्फ मिट्टी का घरौंदा भर है, वह सूना मन्दिर मात्र है, जिसमें अब तक देवता की प्रतिष्ठा नहीं हुई है। इस देह के भीतर आत्मा अंगड़ाई भर रही है या नहीं? जागृति की लहर ठठ रही है या नहीं। यही हमारी इन्सानियत का पैमाना है। हमारे दर्शन की भाषा में देवता वे ही नहीं हैं जो स्वर्ग में रहते हैं, बल्कि इस धरती पर भी देवता विचरण किया करते हैं, मनुष्य के रूप में भी देव हमारे सामने घूमते रहते हैं। राक्षस और दैत्य वे ही नहीं हैं, जो जंगलों, पहाड़ों में रहते हैं और रात्रि के गहन अन्धकार में इधर-उधर चक्कर लगाते फिरते हैं, बल्कि मनुष्य की सुन्दर देह में भी बहुत से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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