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धर्म का अन्तर्हदय | १९७ राक्षस और पिशाच छुपे बैठे हैं। नगरों और शहरों की सभ्यता एवं चकाचौंध में रहने वाला ही इन्सान नहीं है, हमारी इन्सानियत की परिभाषा कुछ और है। तत्त्व की भाषा में, इन्सान वह है, जो अन्दर की आत्मा को देखता है और उसकी पूजा करता है। उसकी आवाज सुनता है और उसकी बताई राह पर चलता है। 'जन' और 'जिन' :
जिस हृदय में करुणा है, प्रेम है, परमार्थ के संकल्प हैं और परोपकार की भावनाएँ हैं, वही. इन्सान का हृदय है। आप अपने स्वार्थों की सड़क पर सरपट दौड़े चले जा रहे हैं, पर चलते-चलते कहीं परमार्थ का चौराहा आ जाए, तो वहाँ रुक सकते हैं या नहीं ? अपने भोग-विलास की काली घटाओं में घिरे बैठे हैं, पर क्या कभी भी इन काले बादलों के बीच परोपकार और त्याग की बिजली भी चमक पाती है या नहीं? यदि आपकी इन्सानियत मरी नहीं है, तो वह ज्योति अवश्य ही जलती होगी !
आपको मालूम है कि हमारा ईश्वर कहाँ रहता है ? वह कहीं आकाश के किसी बैकुण्ठ में नहीं बैठा है, बल्कि वह आपकै मन के सिंहासन पर बैठा है, हृदय मन्दिर में विराजमान है, वह। जब बाहर की आँख मूंदकर अन्तर में देखेंगे, तो उसकी ज्योति जगमगाती हुई पाएँगे, ईश्वर को विराजमान हुआ देखेंगे।
ईश्वर और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं। आत्मा और परमात्मा दो तत्त्व नहीं हैं। नर और नारायण दो भिन्न शक्तियाँ नहीं हैं। जन और जिन में कोई अन्तर नहीं है, कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है। उपनिषद् के दर्शन की भाषा में कहूँ, तो सोया हुआ ईश्वर जीव है, संसारी प्राणी है और जाग्रत जीव ईश्वर है, परमात्मा है। मोह माया की निद्रा में मनुष्य जब तक अन्धा हो रहा है, वह जन है, और जब जन की, अनादि काल की तन्द्रा टूट गई, जन प्रबुद्ध हो उठा, तो वही जिन बन गया। जीव और जिन में और क्या अन्तर है ? जो कर्म दशा में जीव है, कर्म मुक्त दशा में वही जिन है।
"कर्मबद्धो भवेज्जीवः कर्ममुक्त स्तथा जिनः" । बाहर में बिन्दु की सीमाएँ हैं, एक छोटा-सा दायरा है। पर, अन्तर में वही विराट सिन्धु है, उसमें अनन्त सागर हिलोरें मार रहा है, उसकी कोई सीमा नहीं, कोई किनारा नहीं। एक आचार्य ने कहा है
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्त चिन्मात्रमूर्तये।
स्वानुमूत्येकमानाय, नमः शान्ताय तेजसे!" जब तक हमारी दृष्टि देश काल की क्षुद्र सीमाओं में बँधी हुई है, तब तक वह अनन्त सत्य के दर्शन नहीं कर पाती और जब वह देश काल की सीमाओं को तोड़ देती है, तो अन्दर में अनन्त, अखण्ड ज्योति के दर्शन होते हैं। एक दिव्य, शान्त, तेज
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