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________________ धर्म का तत्व १९५ निकालने के लिए हमने लड़ाई की, यदि वह घर के भीतर और गहरा जा छुपा, तो यह और भी भयंकर स्थिति होगी। इसीलिए जैन-दर्शन वस्तुओं से हटने का उतना उपदेश नहीं करता, जितना कि आसक्ति से दूर हटने का उपदेश करता है। राग-द्वेष, मोह और आसक्ति के बंधन जितने परिमाण में टूटते हैं, उतने ही परिमाण में हम आत्मा के निकट आते हैं और मुक्ति के निकट आते हैं। लोग कहते हैं, भगवान् महावीर की मुक्ति दीवाली के दिन हुई। जैन-दर्शन की दृष्टि में यह कहना पूर्णत: सही नहीं है। उनकी मुक्ति तो उसके बहुत पहले वैशाख शुक्ला दशमी को ही हो चुकी थी। अनुयोग द्वार-सूत्र के अनुसार सिद्ध का एक अर्थ केवल ज्ञानी भी है। भगवान् महावीर सिद्ध थे, जीवन्मुक्त थे, शरीर में रह कर भी शरीर के घेरे से परे थे, इसीलिए वे इन्द्रियों के रहते हुए भी तो इन्द्रिय से परे थे। चूँकि वे इन्द्रियजन्य राग- . द्वेष से मुक्त थे। एक आचार्य ने कहा है कषाय-मुक्तिः किल मुक्तिरेव'। कषाय से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है। इसी दृष्टि से अनुयोग द्वार सूत्र में कहा है—सिद्ध भगवान् ने ऐसा कहा है। देह से मुक्त होने पर ही यदि सिद्ध होता है, पहले नहीं, तो प्रश्न है....वे कहते कैसे हैं ? कहना तो शरीरधारी का ही होता है। 'अत: स्पष्ट है कि मोह और क्षोभ से रहित वीतराग आत्मा शरीर के रहते हुए भी सिद्ध हो जाती है। मुख्य प्रश्न देहत्याग का नहीं, कषायत्याग का है। वास्तविक मुक्ति भी देहमुक्ति नहीं है, कषायमुक्ति है। जो आत्मा कषाय से मुक्त है, राग-द्वेष से रहित है, वही सच्चे अर्थ में मुक्त है। इसलिए जब हम मुक्ति की खोज में निकलते हैं, तो हमें अपनी खोज करनी पड़ती है। मुक्ति कहीं बाहर नहीं है, अपने में ही है और, उस अपनी खोज का, अर्थात् आत्मा की खोज का जो मार्ग है, वही धर्म है। हमें उसी धर्म की आराधना करनी है, साधना करनी है जो आत्मा का ज्ञान कराए। स्पष्ट है कि धर्म का तत्त्व आत्मानुसंधान है, आत्मावलोकन है। आत्मावलोकन अर्थात् जिसने अपने अन्तर का अवलोकन कर लिया, अपने अन्तर्देव का दर्शन कर लिया, जिसने अपनी आत्मा की आवाज-सच्ची, विश्व कल्याणी आवाज का श्रवण कर लिया, उसने धर्म का सार पा लिया। आत्मस्वरूप को समझ लेने पर व्यक्ति के अन्दर विश्वभाव की उदात्त भावना जाग्रत हो जाती है, उसकी आवाज विश्वजनीन आवाज होती है। उसका चिंतन विश्वार्थ चिंतन होता है। उसका कार्य-विश्वहितकर कार्य होता है। अतः निष्कर्षतः हम कह सकते हैं, कि धर्म का वास्तविक रूप अपने-आप को पहचानना है, अपने अन्तर पर सम्यक् अवलोकन करना है, जिसके अन्दर प्रेम, मैत्री, करुणा एवं दया का अक्षय निर्झर झरा करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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