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________________ . १९४ चिंतन की मनोभूमि ही है कि कहीं हम उन महापुरुषों के नकली उत्तराधिकारी तो नहीं है ? आज हमें भान नहीं रहा है कि हम कौन हैं ? और हमारी मर्यादाएँ क्या हैं ? यदि हम सच्चे अर्थ में उन महान आत्माओं के उत्तराधिकारी हैं, तो हममें करुणा क्यों नहीं जगती है ? सत्य का प्रकाश क्यों नहीं होता है ? विकारों को ध्वस्त करने के लिए वीरत्व क्यों नहीं उछालें मारता है ? आत्मस्वरूप को भुलाकर हम दीन-हीन हुए क्यों दरदर की ठोकरें खा रहे हैं ? हमारे उत्तराधिकार के दावे पर वास्तव में यह . प्रश्न-चिन्ह है। आत्मशक्ति की बात पर हमें यह भी नहीं भूलना है कि सिर्फ पाँच-छह फुट के शरीर की शक्ति ही आत्मशक्ति नहीं है। उसकी छोटी-सी परिधि ही आत्मा की परिधि नहीं है। शरीर, इन्द्रिय और मन की शक्ति या चेतना तो मात्र औपचारिक है, वास्तविक शक्ति का स्रोत तो हमारी आत्मा ही है। कुछ लोग अवधिज्ञान के विषय में पूछते रहते हैं, उसकी प्राप्ति के लिए बहुत लालायित रहते हैं, किन्तु मैं पूछता हूँ कि अवधिज्ञान प्राप्त करने से क्या होगा? अवधिज्ञान के द्वारा यदि स्वर्ग, नरक आदि का ज्ञान हो गया, मेरु पर्वत की स्थिति का पता चल गया, संसार की हरकतों और हलचलों का लेखा-जोखा करने की ही यदि शक्ति मिल गई, तो क्या हुआ ? आत्मदर्शन के बिना उस अवधिज्ञान का क्या महत्त्व है ? इसी प्रकार मन:पर्यव ज्ञान की प्राप्ति से यदि अपने एवं जगत् के अन्य प्राणियों के मन की उछल-कूद का ज्ञान हो गया, भूत-भविष्य की जानकारी हो गई, मनरूपी बंदर के खेल देखने और जानने की शक्ति मिल गई, तो इससे लाभ क्या हुआ ? यही कारण है कि केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए और उसकी भूमिका में आने के लिए बीच में अवधिज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान प्राप्त करने की कोई शर्त नहीं रखी गई है। महत्त्व तो श्रुतज्ञान का है कि जिसके सहारे आत्मा के वास्तविक स्वरूप की झाँकी मिले, भले ही वह परोक्ष रूप में हो, किन्तु उसी के सहारे बढ़ती हुई आत्मा एकदिन केवल ज्ञान के द्वारा अमूर्त अनन्त आत्मा का साक्षात् बोध कर सकती है। मुक्ति का मर्म : आप लोग जानते हैं कि हम जो इतने क्रियाकांड करते हैं, उपवास, संवर, सामायिक आदि करते हैं, खाने-पीने, भोग-विलास आदि इन्द्रियजन्य सुख की वस्तुओं का त्याग करते हैं, वह सब किसके लिए है ? शरीर के साथ हमारी कोई लड़ाई नहीं है कि हम उसे बेदर्दी के साथ सुखा डालें, उसको यों ही सड़ने-गलने दें। जैन-दर्शन की विशिष्टता यही तो है कि उसकी लड़ाई न तो संसार के पदार्थों के साथ है और न शरीर के साथ। उसकी लड़ाई तो है-आसक्तियों के साथ, राग-द्वेष के साथ। व्रत-उपवास आदि साधन इसीलिए तो हैं कि उनके द्वारा राग-द्वेष को कम किया जाए, आसक्ति को मिटाया जाए। यदि त्याग करने पर भी आसक्ति नहीं हटी, तो वह एक प्रकार का मायाचार होगा। गीता के शब्दों में 'मिथ्याचार' होगा। जिस चोर को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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