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धर्म का तत्व १९३ समय के युद्ध-क्षेत्रों में जो चारणों की व्यवस्था रहती थी, उसके पीछे भी यही भावना निहित थी। वे समय-समय पर वीरों के ठंडे पड़ते खून में उफान ला देते थे। सोते हुए पुरुषार्थ को जगा कर मैदान में रण-चण्डी के समक्ष ढकेल देते थे। महाभारत में अर्जुन को श्रीकृष्ण से निरंतर प्रेरणा मिलती रही कि यह जीवन युद्ध के लिए है, इससे मुँह मोड़कर अपनी क्लीवता प्रकट मत कर। इसी प्रकार इस जीवन-संग्राम में प्रत्येक साधक अर्जुन है, और प्रत्येक गुरु श्रीकृष्ण । गुरु साधक को विकारों से लड़ने के लिए निरंतर प्रेरित करते हैं—जब जब काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रमाद, मोह का आवरण आत्मा पर पड़ता है, तब तब गुरु उसे सावधान करते रहते हैं। ज्ञान की उस शुभ चिनगारी पर जब जब विकारों की राख जमने लगती है, तो व्रत, उपवास, प्रत्याख्यान आदि के द्वारा उसे हटाने का प्रयत्न होता है। ये सब विकारों के लौहआवरणों को तोड़कर आत्मा के शुभ स्वरूप का दर्शन कराने के लिए ही साधना के क्रम हैं। आत्म-दर्शन :
__ आत्मस्वरूप का सम्यक् ज्ञान होने के बाद विभाव के बंधन टूटने में कोई समय नहीं लगता। जिस प्रकार काली घटाओं से आच्छादित अमावस की कालरात्रि का सघन अंधकार दीपक के जलते ही दूर भाग जाता है। पर्वतों की कन्दराओं में हजारों वर्षों से रहने वाले उस गहन अंधकार को प्रकाश की एक किरण एक क्षण में ही समाप्त कर डालती है, सब ओर आलोक की पुनीत रश्मियाँ जगमगा उठती हैं। जैनदर्शन के अनुसार, उत्पत्ति और व्यय का क्रम बिल्कुल संयुक्त रहता है। सृष्टि और संहार का काल एक ही होता है,ठीक वैसे ही आत्मा पर चिपके हुए बाह्य आवरणों के टूटने का और आत्म स्वभाव के प्रकट होने का कोई अलग-अलग समय नहीं है। आत्मा के जागते ही धर्म के द्वार खल जाते हैं। घर में प्रकाश फैलते ही अंधकार दूर हो जाता है, समस्त वस्तुएँ अपने आप प्रतिभासित हो जाती हैं। ... सवाल यह है कि हमने धर्म को जानने का एक अभिनय मात्र ही किया है या वास्तव में जाना भी है? जिस व्यक्ति ने अपने को पहचान लिया है, उसने धर्म को भी पहचान लिया है। वह भटकता नहीं। जिसे आत्मा की अनन्तानन्त शक्तियों का पता नहीं, वह वासनाओं और विकारों के द्वार पर ही भटकता होता है। यदि आप एक चक्रवर्ती के पुत्र को गली-कूचे में भीख माँगते देखेंगे, तो सम्भव है, पहले क्षण आप अपनी आँखों पर भरोसा न करें, किन्तु सही तथ्य को लाने पर तो अवश्य ही सोचेंगे कि इसमें कहीं कोई गड़बड़ी है क्या ? दाल में काला है क्या ? या तो यह चक्रवर्ती का पुत्र नहीं है, या अपनी स्थिति को भूल कर पागल एवं विक्षिप्त हो गया है ! इसी प्रकार राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि महापुरुषों की संतान तथा महान आत्माओं के उत्तराधिकारी हम यदि वासनाओं, इच्छाओं और कामनाओं के द्वार पर भीख मांगते फिरते हैं, विषयों के गुलाम हुए बैठे हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक
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