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(१९२ चिंतन को मनोभूमि आँखों में है। मान लीजिए, यदि कोहेनूर रास्ते में पड़ा हो और एक अन्धे के पैर में चुभे, तो क्या उसे ज्ञान हो सकेगा कि यह कोहेनूर है। उसकी दृष्टि में तो वह कोई कंकर है, पत्थर का टुकड़ा मात्र है। अन्तर का शास्ता:
ऊपर की चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि कोहेनूर का मूल्य-निर्धारण स्वयं उसमें नहीं है, बल्कि इन्सान की आँख में है। एक प्रश्न फिर उठ सकता है कि तो जब मूल्य निर्धारण का मापदण्ड आँख ही हुई और आँख जब स्वयं ही सीमाबद्ध है, तथा जो अपने आपको भी नहीं देख सकती, वह दूसरे का मूल्यांकन कैसे करेगी? कोहेनूर भी मौजूद है, आँख भी मौजूद है, किन्तु आँख की खिड़की से झाँकने वाला चैतन्य यदि नहीं है, तो उसका क्या मूल्य ? आँख, कान आदि शरीर की प्रत्येक इन्द्रिय का, ज्ञात-अज्ञात प्रत्येक चेष्टा का जो संचालक है, शास्ता है, यदि उसका अस्तित्व ही नहीं है, तो न आँख का मूल्य है और न कोहेनूर का ही। हमारी आँख, कान नाक, जिह्वा आदि इन्द्रिय-शक्तियाँ तो उसी महाशास्ता से शासित हैं। यदि वह शास्ता नहीं रहती है, तो फिर सबका मूल्य शून्य हो जाता है। इसलिए आँख के प्रकाश से जो देखने वाला तत्त्व है, वही अन्दर का शास्ता है, सभी शक्तियों का अधिष्ठाता है। इसी पवित्र सत्ता, दिव्य शक्ति एवं चेतना-पुंज का जो साक्षात्कार है, वीतराग भाव की अनुभूति है, वही धर्म है। उसकी जो व्याख्या करे, वही शास्त्र है। हमारी साधना उसी अनन्त चैतन्य प्रकाश को खोजने की है, पाने की है, जो साधना ऐसा नहीं करती है, वह साधना कदापि नहीं है।
यहाँ पर एक प्रश्न और खड़ा हो जाता है कि जो स्वयं प्रकाश का स्रोत है, उसकी खोज हम क्या करें? कैसे करें? प्रश्न ठीक है, किन्तु यह भी आप न भूलें कि दियासलाई में अग्नि तत्त्व के बीज विद्यमान होते हुए भी प्रकाश के लिए उसे रगड़ना नहीं होता है क्या ? ठीक उसी प्रकार, अन्तर में जो यह महाप्रकाश का पुंज है, वह आवरणों से ढंका हुआ है, अन्तर का वह शास्ता अपने आपको भुला बैठा है, अतः उसे सिर्फ अपने निज स्वरूप का, अपनेपन का भान हो सके, ऐसी एक उदात्त प्रेरणा की आवश्यकता है। आप जानते हैं, सामायिक, संवर, व्रत, प्रत्याख्यान आदि का क्या अर्थ है ? क्या इनसे आत्मशक्ति के अभिवर्धन की आकाँक्षा है ? ये सब तो केवल उस शक्ति को जाग्रत करने के साधन मात्र हैं, प्रेरणा की एक चिनगारी मात्र हैं, जिनके माध्यम से आत्मा निज स्वरूप का ज्ञान कर सके। प्रेरणा की चिनगारी:
भारत के प्राचीन इतिहास में वर्णन आता है, कि जब एक बहुत बड़ा धनुर्धर राजा मैदान में लड़ता-लड़ता शिथिल हो जाता था, अपना-आपा भूल जाता था, तो पीछे से एक बुलन्द आवाज आती थी-लड़ो, लड़ो। यह आवाज सुनकर वह पुनः चैतन्य हो उठता था और तब पुनः उसके हाथों में तलवार चमक उठती थी। प्राचीन
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