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________________ धर्म का तत्व १९१ यह सही है कि सागर की गहराई और विस्तार का कोई सीमांकन नहीं हो सकता, किन्तु जीवन की, सत्य की गहराई उससे भी कई सौ गुनी है। यदि भगवान महावीर के शब्दों में कहा जाए, तो वह महासमुद्र से भी गम्भीर है । १ अनन्त काल पूर्व यह जीवन-यात्री जीवन के लहराते समुद्र को पार करने चला था, अनन्त काल बीत गया, किन्तु अभी उसने यह नहीं जान पाया कि यह जीवन क्या है ? मैं कौन हूँ ? क्यों भटक रहा हूँ ? मेरा क्या धर्म है ? यात्री के सामने इन सारे प्रश्नों का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है । इनकी गहराई में जाना; उसके लिए अनिवार्य है। इस धरती पर जो भी महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने इस सत्य के सागर की गहराइयों का थाह पाया है, उन्होंने अवश्य इस पर विचार किया है । सत्य के इस मर्म को उघाड़ा है, जीवन की गहराई की परत उठाकर उसका वास्तविक दर्शन कराने का प्रयास किया है। धर्म का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है--' वत्थुसहावो धम्मो । ' वस्तु (द्रव्य, पदार्थ) का जो मूल रूप है, अपना भाव है, वही तो वस्तु का धर्म है । प्रत्येक वस्तु का एक निश्चित रूप होता है, और वही उसका धर्म होता है। इस दृष्टि से धर्म का अर्थ हुआ-वस्तु का अपना स्वभाव । आत्मा भी एक वस्तु है और संसार के समस्त पदार्थों में एक विशिष्ट शक्ति-संपन्न, चेतनापुंज है। तो फिर दूसरों से पूछने की अपेक्षा अपने से ही पूछें कि तेरा धर्म क्या है ? इस संसार के चौराहे पर तेरे घूमने का क्या उद्देश्य है ? क्या तू आकाश, जल, अग्नि, मिट्टी और वायु — इन पंचभूतों का सम्मिश्रण मात्र है ? अथवा अन्य कुछ है ? आत्मा को पहचानने वालों ने इस सम्बन्ध में अपना उत्तर दिया है कि इन पंचभूतों के अस्थिपंजर, हाड़-माँस, रक्त और मज्जा से निर्मित शरीर से परे तू कुछ और सत्ता है, तू महान् है, विराट् है, संसार के समस्त पदार्थों में तेरा सर्वोपरि स्थान है। आश्चर्य तो यह है कि अन्य जड़ वस्तुओं की भाँति यह आत्मा भी स्वयं अपना मूल्य नहीं समझ पा रहा है। मूल्य की दृष्टि से संसार में हीरे का मूल्य बहुत आँका जाता है। कोहेनूर हीरे के बारे में कहा जाता है— वह महाभारत काल में धर्मराज युधिष्ठिर के पास था। तब से संसार के सम्राटों के पास घूम रहा है। उसका एक विशिष्ट मूल्य है। किन्तु लाखों कोहेनूर हीरों का ढेर लगा कर उनसे पूछा जाय कि तुम्हारा क्या मूल्य है ? तो क्या वे बता सकेंगे ? उन्हें स्वयं अपना कुछ पता नहीं है, क्योंकि वे जड़ हैं । यही दशा एक मिट्टी के ढेले की है। दोनों ही जड़ हैं। इस अर्थ में दोनों ही समान हैं। किन्तु फिर कोहेनूर का मूल्य आया कहाँ से ? उसका मूल्याँकन करने वाला कौन है ? कहना होगा—उसको परखने की शक्ति इन्सान की १. " गंभीरतर समुददाओ ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only - प्रश्न व्याकरण २/२ www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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