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________________ २१ धर्म का तत्त्व आज हर गली, हर बाजार और हर द्वार पर धर्म की चर्चाएँ हो रही हैं, धर्म का शोर मचाया जा रहा है, धर्म की दुहाई दी जा रही है, और धर्म के नाम पर लड़ाई भी लड़ी जा रही है। किन्तु पता नहीं, वे इस प्रश्न पर भी कभी सोचते हैं या नहीं कि यह धर्म है क्या चीज ? उसके क्या लक्षण हैं ? क्या स्वरूप है उसका और उसके अर्थ क्या हैं ? जो हमेशा धर्म की बातें करते हैं, क्या उन्होंने कभी इस प्रश्न पर भी विचार किया है ? धर्म की गहराई : सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले इस प्रश्न पर चिंतन चला है, इस गुत्थी को सुलझाने के लिए चिन्तन की गहराइयों में पैठने का प्रयत्न भी किया गया है और धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के निर्णय एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किए गए हैं। यह निश्चय है कि सागर के ऊपर तैरने से कभी मोती नहीं मिलते। मोतियों और रत्नों के लिए तो उसकी गहराइयों में डुबकियाँ लगानी पड़ती हैं तो फिर ज्ञान और सच्चाई को पाने के लिए क्यों न हम उसकी गहराई में उतरने का प्रयत्न करें ! चिंतन-मनन ऊपर-ऊपर तैरते रहने की वस्तु नहीं है, वह तो गहराई में और बहुत गहराई में पैठने से ही. प्राप्त होगा। जो जितना गहरा गोता लगाएगा, वह उतने ही मूल्यवान मणि-मुक्ता प्राप्त कर सकेगा। तभी तो हमारे यहाँ कहा जाता है "जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ । " अतः सत्य के दर्शन के लिए आत्म-सागर की अतल गहराइयों को नापना होगा; तभी चिंतन-मनन के महार्घ मोती पा सकेंगे। हाँ, इतना अवश्य हो सकता है कि समुद्र के किनारे-किनारे घूमने वाले उसके लुभावने सौंदर्य का दर्शन कर सकते हैं और शीतल-मंद समीर का आनन्द लूट सकते हैं, किन्तु सागर के तट पर घूमने वाला व्यक्ति कभी भी उसकी अतल गहराई और उसके गर्भ में छिपे मोतियों के बारे में कुछ नहीं जान सकता । वैदिक सम्प्रदाय के एक आचार्य मुरारि ने कहा है कि भारत के तट से लंका के तट तक पहुँचने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सेना के बहादुर बानरों ने लंका तक के सागर को लाँघा तो जरूर पर, उन्हें समुद्र की गहराई का क्या पता कि वह कितनी है ? सागर की सही गहराई को तो वह मंदराचल पर्वत ही बता सकता है, जिसका मूल पाताल में बहुत गहरा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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