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प्रेम और भक्तियोग | १८९ तो माता-पुत्र, पति-पत्नी सिर्फ दो शरीर हैं, जिनमें हलन चलन अवश्य है, परन्तु आत्मा का दिव्य स्पन्दन नहीं है । हाथ-पाँव में चंचलता है, पर हृदय की धड़कन नहीं है। संसार और आध्यात्म के समस्त सम्बन्ध प्रेम की भूमिका पर टिके हुए हैं ।
प्रेम की साधना तब होती है, जब अहंकार और स्वार्थ का बलिदान किया जाए। जहाँ अहंकार, कामना या स्वार्थ है, वहाँ प्रेम नहीं टिक सकता। संत कबीर ने कहा है
"प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाय"
पूर्व और पश्चिम के यात्री जिस प्रकार एक साथ नहीं चल सकते, उसी प्रकार प्रेम और अहंकार एक साथ यात्रा नहीं कर सकते । प्रेम की गली में या तो प्रेम चलेगा या अहंकार ! अहंकार आएगा तो प्रेम अपने आप रास्ता छोड़ कर किनारा हो लेगा और जब प्रेम चलेगा, तो अहंकार उसके सामने आने का साहस भी नहीं कर सकेगा। प्रकाश और अन्धकार की तरह प्रेम (भक्ति) और अहंकार में जन्मजात विरोध है ।
भक्त भगवान् से तभी मिल सकेगा, दूसरे शब्दों में भक्त तभी तन्मय अर्थात् भगवान्मय बन सकेगा, जब वह अपने आप को उसके समर्पण कर देगा, उसके दिव्य गुणों की साधना में अपने को एकतानता में लीन कर देगा। परन्तु यह समर्पण कब होता है ? तभी न, जब अहंकार टूटता है। तू और मैं का द्वैत समाप्त हो जाता है । पति-पत्नी अपने-अपने अहंकार में अड़े रहें, तो क्या वे एक-दूसरे को प्रेम कर सकते हैं ? एक-दूसरे के लिए समर्पित हो सकते हैं ? प्रेम जब अपना विराट् रूप लेकर आता है। जब 'तू ही तू' की आवाज गूँजती है, तो 'मैं' वहाँ समाप्त हो जाता है, द्वैत विलीन हो जाता है। यही प्रेमयोग का स्वरूप है।
धर्म: प्रेम का द्वार :
धर्म की लौ जब जल उठती है, तो प्रकाश जगमगाता है, जीवन में प्रेम का द्वार खुल जाता है। मेरी बात पर ध्यान दीजिए कि धर्म हमारे जीवन में प्रेम का द्वार खोल देता है, भेद की दीवार मिटा देता है। आत्मा के केन्द्र पर जो टिक गया, वह अन्य आत्माओं में भेद नहीं करता। वह परिवार, समाज और देश में भेद नहीं करता । धर्मो और पंथों में भेद नहीं मानता। उसकी दृष्टि सर्वत्र अन्दर के अखण्ड सत्य पर रहती है, वह बाहर के भेद-प्रभेदों में नहीं, खण्डों और टुकड़ों में नहीं टिकता । वह सत्य का आदर करता है, फिर भले ही वह कहीं से भी और किसी से भी मिले। भेद देखने की जो दृष्टि है, वह इन्सानियत की ज्योति को बुझा देती है । मानवता के 'अखण्ड प्रवाह को संकुचित बना देती है । वह मानवता का अपमान करती है, सम्मान
नहीं ।
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