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प्रेम और भक्तियोग
जब आत्मा का परमात्मा के साथ योग होता है, तो उसे हम साधना कहते हैं 1 यह साधना जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाती है, परम शान्ति और आनन्द की ओर ले जाती है।
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हमारी आत्मा अनन्त - अनन्त काल से परमात्मतत्त्व से पराङ्मुख होकर चल रही है, इसीलिए वह अनेक पीड़ाओं और यातनाओं से संत्रस्त हुई भटकी - भटकी इश्वर -उधर दौड़ रही है। संसार में उसे जो सुख और आनन्द की यत्किंचित् अनुभूति हो रही है, वह वास्तविक और सही नहीं है। विषमिश्रित मिठाई की तरह वह देखने में सुन्दर और खाने में मधुर भले ही लगे, पर उसका अन्तिम परिणाम मृत्यु के द्वार पर पहुँचाने वाला होता है। वास्तविक सुख की अनुभूति सत्य में है, करुणा में है, प्रेम और सद्भाव में है ।
जब आत्मा अपनी गति का मोड़ बदलेगी, संसार से हट कर परमात्मतत्त्व की ओर उन्मुख होगी, तो उसे अखण्ड आनन्द के दर्शन होंगे। अनेक स्थानों पर परमात्म के दर्शन की बात आती है, पर उसका भावार्थ क्या है ? यही न कि आत्मा का अनन्त, अक्षय स्वरूप ही परमात्मतत्त्व है। अतः परमात्मा की ओर उन्मुख होने का मतलब है - अनन्त सत्य की ओर उन्मुख होना, विराट् अहिंसा की ओर उन्मुख होना और विराट् प्रेम का रसास्वादन करना । जब अनन्त सत्य के दर्शन हो जाएँगे तो मन में प्रकाश भर जाएगा। आकाश में जब सूर्य की हजार-हजार किरणें खेल रही हों, तब क्या कहीं अन्धकार रह सकता है ?
प्रेमयोग क्या है ?
साधना का अर्थ है- योग ! और योग का अर्थ है जुड़ना, संयुक्त होना । ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग – ये सब योग हैं। जब आत्मा ज्ञान की ओर उन्मुख होती है, उसके साथ जुड़ती हैं, तो वह ज्ञानयोग होता है। कर्म के साथ जब आत्मा का सम्बन्ध होता है, तो वह कर्मयोग कहलाता है। जब आत्मा किसी दिव्य आत्मा के एवं उसके दिव्यगुणों के प्रेम में तन्मय हो जाती है, तो वह भक्तियोग अथवा प्रेमयोग कहलाता है ।
आचार्यों ने प्रेमयोग को सबसे अधिक महत्त्व दिया है। प्रेम है तो पिता-पुत्र का सम्बन्ध है, माता-पुत्र का रिश्ता है, पति-पत्नी का नाता है। गुरु और शिष्य को, भक्त और भगवान् को परस्पर जोड़ने वाला सूत्र क्या है ? प्रेम ही तो है। प्रेम नहीं है,
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