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भक्ति, कर्म और ज्ञान १८७ तीनों का समन्वय :
बचपन से यौवन और यौवन से वार्धक्य जिस प्रकार का आरोहण क्रम है, उसी प्रकार साधना का भी, भक्तियोग से कर्मयोग और कर्मयोग से ज्ञानयोग के रूप में ऊर्ध्वमुखी आरोहण-क्रम है। इस दृष्टि से भक्तियोग में साधना की कोई विशिष्टता नहीं रहती, और अन्तिम ज्ञानयोग में भी उसकी कोई आवश्यकता नहीं रहती, इसी लिए कर्मयोग ही साधना का मुख्य केन्द्र रहता है। किन्तु एक बात भूल नहीं जानी है कि हमें कर्मयोग में भक्तियोग तथा ज्ञानयोग का उचित आश्रय लेना पड़ता है, इसीलिए साधनास्वरूप कर्मयोग के केन्द्र पर खड़ा होकर हमें भक्ति एवं ज्ञान का सहारा लेकर चलना होता है। भक्ति हमारा हृदय है, ज्ञान हमारा मस्तिष्क है और शरीर, हाथ पैर, कर्म हैं। तीनों का सुन्दर-समन्वय ही स्वस्थ जीवन का आधार है, बस इसे भूलना नहीं है।
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