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________________ | १८६ चिंतन की मनोभूमि आगमों में एक स्थान पर यह प्रयोग आया है-"सिद्धा एवं भासंति" सिद्ध ऐसा कहते हैं, अर्थात् केवलज्ञानी ऐसा कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि सिद्ध अवस्था ज्ञानयोग की अवस्था है, जहाँ कर्त्तव्य एवं कर्म की सम्पूर्ण सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं, विधि-निषेध के बंधन टूट जाते हैं। आत्मा केवल अपने स्वभाव में, ज्ञान योग में ही विचरण करती है। एक प्रश्न यहाँ उठ सकता है और उठता भी है कि जब केवल दशा में कुछ भी कर्तव्य अवशेष नहीं रहता, साधना काल समाप्त हो जाता है तो फिर केवलज्ञानी उपवास आदि किसलिए करते हैं ? चूँकि उनके सामने न इच्छाओं को तोड़ने का प्रश्न है और न कर्मक्षय करने का ! बात ठीक है। इच्छाएँ जब तक रहती हैं, तब तक रहती हैं, तब तक तो . कैवल्य प्राप्त हो नहीं पाता, अत: इच्छा-निरोध का तो प्रश्न ही नहीं हो सकता। चूंकि घातिकर्म को क्षय करने के लिए ही साधना होती है, घातिकर्म वहाँ समाप्त हो चुके हैं, अवशिष्ट चार अघाति कर्म हैं, और अघाति कर्म को क्षय करने के लिए बाहर में किसी भी तप आदि की अपेक्षा नहीं रहती। उपवास आदि तप अघातिकर्म को क्षय करने के लिए कभी नहीं हो सकता। अघाति कर्म काल परिपाक से स्वतः ही क्षीण हो जाते हैं। यदि कोई आयु कर्म को क्षीण करने के लिए, यदि उपवास आदि करता है तो यह गलत बात है। उपवास को जैनदर्शन में यह कहा गया है कि यह एक काल स्पर्शना है, पदगल स्पर्शना है। कैवल्य अवस्था निश्चय दृष्टि की अवस्था होती है, केवलज्ञानी जब जैसी स्थिति एवं स्पर्शना का होना देखते हैं, तब वे वैसा ही करते हैं। उनके लिए उदय मुख्य है—'विचरे उदय प्रयोग।' जब भोजन की पुद्गल-स्पर्शना नहीं देखते हैं, तो सहज उपवास हो जाता है और जब भोजन की पुद्गल-स्पर्शना आती है, तब भोजन हो जाता है। न उपवास में कोई विकल्प है और न भोजन में ! सर्वविकल्पातीत दशा, जिसे हम कल्पातीत अवस्था कहते हैं, उस अवस्था में विधि-निषेध, अर्थात् विहित-अविहित जैसी कोई मर्यादा नहीं रहती। इसी को वैदिक संस्कृति में त्रिगुणातीत अवस्था कहा है-"निस्वैगुण्ये पथि विबरतां को विधिः को निषेधः?" यह ज्ञानयोग की चरम अवस्था है, जहाँ न भक्ति की जरूरत है, न कर्म की ! आत्मा अपने विशुद्ध रूप में स्वतः ही परिणमन करती रहती है, जैन परिभाषा में यह आत्मा की स्वरूप अवस्था—अर्थात् सिद्ध अवस्था है। जीवनमुक्त सिद्ध अवस्था से ही अन्त में देह मुक्त सिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है। और, इस प्रकार ज्ञानयोग अपनी अन्तिम परिणति में पहुंच जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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