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________________ भक्ति, कर्म और ज्ञान | १८५ इसी प्रकार गुरु या भगवान् साधक को मार्ग दिखाता है, दृष्टि देता है, किन्तु अपने आश्रित एवं अधीन नहीं करता, उसमें आत्मनिर्भर होने का भाव जगाता है। अपना दायित्व अपने कन्धों पर उठाकर चलने का साहस स्फूर्त करता है, बस यही हमारा कर्मयोग है । भक्तियोग में जो भगवान् रक्षक के रूप में खड़ा था, कर्मयोग में वह केवल मार्गदर्शक भर रहता है । ज्ञानयोग का प्रतीक : वृद्धत्व : जीवन की तीसरी अवस्था बुढ़ापा है। बुढ़ापे में शरीर बल क्षीण हो जाता है। कहा जाता है, बालक का बल माता है, युवक का बल उसकी भुजाएँ हैं और वृद्ध का बल उसका अनुभव है। बुढ़ापे में जब शरीर जराजीर्ण हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, तब वह न भक्ति कर सकता है और न कर्म ही । उसके पास तब केवल अनुभव अर्थात् ज्ञान ही सहारा होता है, यही उसका बल है। ज्ञानयोग की अवस्था इसीलिए साधन की तीसरी अवस्था मानी गई है। भारतीय संस्कृति में वृद्ध को ज्ञान का प्रतीक माना गया है। जीवन भर के अध्ययन एवं अनुभव का नवनीत वृद्ध से प्राप्त हो सकता है। इसीलिए महाभारत में 'वृद्ध' को धर्मसभा का प्राण बताते हुए कहा गया है— " न सा सभा यत्र न संति वृद्धाः १ जिस धर्म सभा में वृद्ध उपस्थित न हो, वह सभा ही नहीं है । बुद्ध ने भी इसीलिए कहा कि—“ जो वृद्धों का अभिवादन - विनय करता है, उसको आयु, यश, सुख एवं बल की वृद्धि होती है। "२ 44 तात्पर्य यह है कि वृद्ध अवस्था परिपक्व अवस्था है, जिसमें अध्ययन अनुभव का रस पाकर मधुर बन जाता है। उसकी कर्म इन्द्रियाँ भले ही क्षीण हो जाएँ, किन्तु ज्ञानशक्ति बड़ी सूक्ष्म और प्रबल रहती है । इसीलिए वृद्ध अवस्था को ज्ञान योग की अवस्था के रूप में माना गया है। ज्ञान योगी : जीवन्मुक्त सिद्ध : जैन धर्म की साधना पद्धति का जिन्हें परिचय है, वे जानते हैं कि साधक कैवल्य दशा को प्राप्त करने के साथ ही 'ज्ञान योग' की अवस्था में पहुँच जाता है। साधना काल 'कर्मयोग' है और सिद्ध अवस्था 'ज्ञानयोग है।' यह स्मरण रखना चाहिए कि साधना काल में केवलज्ञान नहीं हो सकता। जब साधना अपनी अन्तिम परिणति में पहुँच जाती है, अर्थात् साधना काल समाप्त हो जाता है, तभी केवलज्ञान प्राप्त होता है । इसीलिए केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद आत्मा सिद्ध कहलाती है । यह आप जानते ही हैं कि देह - मुक्त सिद्ध और सदेह सिद्ध के जो भेद हैं, वे इसी दृष्टि से हैं, केवलज्ञानी जो कि सशरीरी होते हैं, सदेह - सिद्ध कहलाते हैं। उन्हीं की अपेक्षा से १. महाभारत, ३५ ।५८ २. धम्मपद, ८।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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