SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | १८४ चिंतन की मनोभूमि मैंने पूछा "क्या आज तक कोई ऐसा गुरु मिला?" बोला_"अभी तक तो मिला नहीं।" मैंने कहा-भले आदमी ! अब तक मिला नहीं, तो क्या अब मिल जाएगा? गुरु तो सिर्फ विष को दूर करने का साधन मात्र बताता है, चेलों का विष चूसता नहीं फिरता। मैं रास्ता बता सकता हूँ, चलना चाहो, तो चल सकते हो। हमारा तो भगवान् मार्ग दिखाने वाला 'मग्गदयाण' है, घसीट कर ले जाने वाला नहीं है। वह तुमको दृष्टि दे सकता है, 'चक्खुदयाणं' उसका विरुद है, किन्तु यह नहीं कि अंगुली पकड़कर घुमाता फिरे। आँख की ज्योति खराब हो गई है, तो डाक्टर इतना ही कर सकता है कि दवा दे दे, आपरेशन कर दे, आँख ठीक हो जाए। यह नहीं कि वह आपकी लकुटिया पकड़ कर घिसटता रहे। मैंने कहा "भाई , हम तो दृष्टि देने वाले हैं, आँख की दवा देने वाले हैं, आँख ठीक हो जाए, तो फिर चलना या न चलना, यह काम तुम्हारा है।" __ बालक ज्यों-ज्यों युवक एवं योग्य होता जाता है, त्यों-त्यों वह अपना दायित्व अपने ऊपर लेता जाता है। दायित्व को गेंद की तरह दूसरों की ओर नहीं उछालता, बल्कि अपने ही परिधान की तरह अपने ऊपर ओढ़ता है। "मैं क्या करूँ? मैं क्या कर सकता हूँ?" यह युवक की भाषा नहीं है। दायित्व को स्वीकार करने वाले का उत्तर यह नहीं हो सकता। वह हर समस्या को सुलझाने की क्षमता रखता है, उसकी भुजाओं में गहरी पकड़ की वज्रशक्ति होती है, बुद्धि में प्रखरता होती है। पिता भी युवक पुत्र को जिम्मेदारी सौंप देता है। उसे स्वयं निर्णय करने का अधिकार दे देता है। यदि कोई पिता योग्य पुत्र को भी दायित्व सौंपने से कतराता है, उसे आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं देता है, तो वह पुत्र के साथ न्याय नहीं करता। उसकी क्षमताओं को विकसित होने का अवसर नहीं देता। ऐसी स्थिति में यदि पत्र विद्रोही बनता है, अथवा अयोग्य रहता है, तो इसका दायित्व पिता पर ही आता है। नीतिशास्त्र ने इसीलिए यह सूत्र कहा है "प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।" पुत्र जब सोलह वर्ष पार कर जाता है, योग्य हो जाता है, तो उसके साथ मित्र की तरह व्यवहार करना चाहिए। आप जानते हैं, अच्छा मास्टर या गुरु कैसे परखा जाता है ? अच्छा मास्टर बच्चों को पाठ पढ़ाते समय आखिर तक खुद ही नहीं बोलता जाता, बल्कि बीचबीच में उनसे पूछता है, उन्हीं के मुँह से सुनता है ताकि पता चले, बच्चे कितना ग्रहण कर रहे हैं, उनकी बौद्धिक क्षमता कितनी है ? ऐसा करने से बच्चों को सोचने का अवसर मिलता है, क्षमता को विकसित होने का मार्ग मिलता है। जो अध्यापक स्वयं ही सब कुछ लिखा-पढ़ा देता है, उसके छात्र बौद्धिक विकास में दुर्बल रह जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy