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भक्ति , कर्म और ज्ञान १८३ आप छाया में न जाकर वृक्ष से प्रार्थना करने लगे कि हे तरुराज! हमें छाया दीजिए! तो क्या वह छाया देगा? छाया तो तभी मिलेगी जब आप छाया में जाकर बैठेंगे।
"छाया तळं संश्रयितः स्वतः स्यात्
किं छायया याचितयात्मलाभः ?" कर्मयोग भी यही बात कहता है कि "वृक्ष से छाया की याचना मत करो। छाया में जाकर बैठ जाओ, छाया स्वयं मिल जाएगी।" यही स्वर भगवान् महावीर की वाणी का है-"यदि अच्छे फल चाहते हो, तो अच्छे कर्म करो, यदि मुक्ति चाहते हो तो संयम, तप, तितिक्षा का आचरण करो! केवल प्रार्थना से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस संसार में तुम्हें पड़े-पड़े मुक्त कर देने वाला कोई भगवान् या देवता नहीं है। तुम्हारा सत्कर्म ही तुम्हारा देवता है वही तुम्हें मुक्ति के द्वार तक ले जायेगा।"
तथागत बुद्ध से जब पूछा गया कि मनुष्य की आत्मा पवित्र कैसे होती है, तो उन्होंने बड़े गम्भीर स्वर से कहा
"कम्मं विजा च धम्मो च सीलं जीवितमुत्तमं। - एतेन मच्चा सुझंति न गोत्तेन धनेन वा?"१ कर्म, विद्या, धर्म' शील. (सदाचार एवं उत्तम जीवन इनसे ही मनुष्य की आत्मा परिशुद्ध होती है, धन या गोत्र से नहीं। गुरुः एक मार्गदर्शक :
भक्तियोग में अहंकार को तोड़ने एवं समर्पित होने की भावना का महत्त्व तो है, किन्तु जब समर्पण के साथ पराश्रित वृत्ति का संयोग हो जाता है, साधक भगवान् गुरु को ही सब कुछ मानकर कर्मयोग से विमुख होने लगता है, तब भक्तियोग में निष्क्रियता एवं जड़ता आ जाती है। यह जड़ता जीवन के लिए खतरनाक है।
हम एक बार दिल्ली से विहार करके आगरा की ओर आ रहे थे। एक गाँव में किसी महंत के मठ में ठहरे। बड़े प्रेम से उन्होंने स्वागत किया। शाम को जब बातचीत चली, तो उनके शिष्य ने कहा--"गुरु ! मुझे गुस्सा बहुत आता है, इसको. समाप्त कर दो न !"
___ मैं जब कुछ साधना बताने लगा, तो बोला-"यह साधना-वाधना मुझ से कुछ नहीं होती, मेरे इस विष को तुम चूस लो।"
मैंने कहा "भाई ! मैं तो ऐसा गारुड़ी नहीं हूँ, जो दुनिया के विष को चूसता फिरूं।" __वह बोला—"गुरु तो गारुड़ी होता है। तुम मेरे गुरु हो, फिर क्यों नहीं चूस .
लेते?"
१. मज्झिम निकाय, ३। ४३।३
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