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________________ १८२ चिंतन की मनोभूमि - एक आत्मा में वे गुण व्यक्त हो रहे हैं, एक में अभी गुप्त हैं। रावण में जब राम प्रकट हो जाता है, तो फिर रावण नहीं रहता, वह भी राम ही हो जाता है। जैन दर्शन की आध्यात्मदृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि वह राम में ही राम को नहीं, अपितु रावण में भी राम को देखती है, और उसे व्यक्त करने की प्रेरणा देती है। यदि रावण में राम को जगाना राम की सत्ता का विरोध या अस्वीकार माना जाएगा, तो यह गलत बात होगी, ऐसा दर्शन हमें नहीं चाहिए । - जैन दर्शन प्रत्येक आत्मा में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है और उस सत्ता को व्यक्त करने के लिए ही प्रेरणा देता है । यह प्रेरणा ही सच्चा कर्मयोग है। वह भक्तियोग से इन्कार नहीं करता, पूजा-पाठ, जप, स्त्रोत आदि के रूप में भक्तियोग की सभी साधनाएँ वह स्वीकार करके चलता है, किन्तु केवल भक्तियोग तक ही सीमित रहने की बात वह नहीं कहता। इसके आगे कर्मयोग को स्वीकार करने की बात भी कहता है। वह कहता है-- बचपन, बचपन में सुहावना है, जवानी में बचपन की आदतें मत रखों। अब जवान हो, जवानी का रक्त तुम्हारी नसों में दौड़ रहा है, तो फिर दूसरों का सहारा ताकने की बात, भूख लगने पर माँ का आँचल खींचने की आदत और भय सामने आने पर छुप जाने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। रोने से बालक का काम चल सकता है, किन्तु युवक का काम नहीं चलेगा । प्रभु के सामने रोने-धोने से मुक्ति नहीं मिलेगी, केवल प्रार्थनाएँ करने से ये बन्धन नहीं टूटेंगे, प्रार्थना के साथ पुरुषार्थ भी करना होगा । भक्ति के साथ सत्कर्म भी करना होगा। कर्म ही देवता है. : भगवान् महावीर की धर्म - क्रान्ति की यह एक मुख्य उपलब्धि है कि उन्होंने ईश्वर की जगह कर्म को प्रतिष्ठा दी । भक्ति के स्थान पर सदाचार और सत्कर्म का सूत्र उन्होंने दिया। उन्होंने कहा । "सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला हवन्ति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला हवन्ति ! १ 6 'अच्छे कर्म अच्छे फल देने वाले होते हैं, बुरे कर्म बुरे फल देने वाले होते हैं।' यदि आप मिश्री खाते हैं, तो भगवान् से प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं कि वह आपका मुँह मीठा करें और मिर्च खाकर यह प्रार्थना करने की भी जरूरत नहीं कि प्रभो ! मेरा मुँह न जले। मिश्री खाएँगे, तो मुँह मीठा होगा ही, और मिर्च खाएँगे, तो मुँह जलेगा ही । जैसा कर्म होगा वैसा ही तो फल मिलेगा। भगवान् इसमें क्या करेगा ? भगवान् इतना बेकार नहीं है कि वह आपका मुँह मीठा करने के लिए भी आए और आपके मुँह को जलाने से बचाने के लिए भी आए ! मार्ग में चलते हुए यदि १. औपपातिक सूत्र, ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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