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भक्ति, कर्म और ज्ञान १८१ युवा संस्कृति की साधना :
जैन संस्कृति साधना की युवा संस्कृति है, युवाशक्ति है, कर्मयोग जिसका प्रधान तत्त्व है। कर्मयोग के स्वर ने साधक के सुप्त शौर्य को जगाया है, मुर्छित आत्मविश्वास को संजीवन दिया है। उसने कहा है—जीवन एक विकास यात्रा है, इस यात्रा में तुम्हें अकेला चलना है, यदि किसी का सहारा और कृपा की आकांक्षा करते रहे, तो तुम एक कदम भी नहीं चल सकोगे। सिद्धि का द्वार तो दूर रहा, साधना का प्रथम चरण भी नहीं नाप सकोगे। इसलिए अपनी शक्ति पर विश्वास करके चलो। अपनी सिद्धि के द्वार अपने हाथ से खोलने का प्रयत्न करो! अपने बन्धन, जो तुमने स्वयं अपने ऊपर डाले हैं, उन्हें स्वयं अपने हाथों से खोलो। इसी भावना से प्रेरित साधक का स्वर एक जगह गूंजता है
"सखे! मेरे बन्धन मत खोल, स्वयं बँधा हूँ, स्वयं खुलूँगा। त न बीच में बोल!
सखे! मेरे बन्धन मत खोल॥" साधक अपने पड़ोसी मित्र को ही सखा नहीं कहता, बल्कि अपने भगवान् को भी सखा के रूप में देखता है और कहता है- "हे मित्र, मेरे बीच में तुम मत आओ ! मैं स्वयं अपने बन्धनों को तोड़ डालँगा! अपने को बन्धन में डालने वाला जब दूसरा कोई नहीं, मैं ही हूँ, तो फिर बन्धन तोड़ने के समय दूसरों को क्यों पुकारूँ? मैं स्वयं ही अपने बन्धन खोलँगा और निरंजन निराकार रूप को प्राप्त करूँगा।" आत्मसापेक्षता, निरीश्वरवाद नहीं: ___अपना दायित्व अपने ऊपर लेकर चलने की प्रेरणा जैनदर्शन और जैन संस्कृति की मूल प्रेरणा है। वह ईश्वर के भरोसे अपनी जीवन की नौका को अथाह समुद्र में इसलिए नहीं छोड़ देता—कि "बस, भगवान् मालिक है। वह चाहेगा तो पार लगाएगा, वह चाहेगा तो मँझधार में गर्क कर देगा।" कुछ दार्शनिक इसी कारण जैनदर्शन को निरीश्वरवादी कहते हैं। मैं कहता हूँ यदि यही निरीश्वरवाद है, तो उस ईश्वरवाद से अच्छा है, जो आदमी को पंगु और परापेक्षी, दीन-हीन बना देता है। जैन-दर्शन मानव को इस मानसिक अक्षमता से मुक्त करके आत्मनिर्भर बनाता है। आत्मबल पर विश्वास करने की प्रेरणा देता है। ऐसे में, जैन-दर्शन निरीश्वरवादी कहाँ है ? उसने जितनें ईश्वर माने हैं, उतने तो शायद किसी ने नहीं माने। कुछ लोगों ने ईश्वर एक माना है, कुछ ने किसी व्यक्ति और शक्ति विशेष को ईश्वर मान लिया है। कुछ ने ईश्वर को व्यापक मानकर सर्वत्र उसका अंश माना है, सम्पूर्ण रूप नहीं। किन्तु जैन-दर्शन की यह विशिष्टता है कि यह प्रत्येक आत्मा में ईश्वर का दर्शन करता है। वह ईश्वर को शक्ति विशेष नहीं, गुण विशेष मानता है। वह गुण सत्ता रूप में प्रत्येक आत्मा में है—एक संत की आत्मा में भी है और दुराचारी की आमा में भी।
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