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|१८० चिंतन की मनोभूमि
साधना क्षेत्र में जीवन की यह युवा अवस्था 'कर्मयोग' कहलाती है। बचपन जब तक है, तब तक किसी का सहारा ताकना ठीक है, पर जब युवा रक्त हमारी नसों में दौड़ने लगता है, तब भी यदि हम अपना मुँह साफ करने के लिए किसी और को पुकारें, तो यह बात युवा रक्त को शोभा नहीं देगी।
कर्मयोग हमारी युवाशक्ति है। अपना मुँह अपने हाथ से धोने की बात "कर्मयोग की बात है। कर्मयोग की प्रेरणा है-तुझे जो कुछ करना है, अपने आप कर! अपने भाग्य का विधाता तू खुद है। जीवन में जो पीड़ाएँ और यातनाएँ तुझे कचोटने आती हैं, वे किसी और की भेजी हुई नहीं हैं। तेरी भूलों ने ही उन्हें निमन्त्रित किया है, अब उनसे भाग मत। उनका स्वागत कर! मुकाबला कर! भूल को अनुकूल बनाना, शूल को फूल बनाना-इसी में तो तेरा चमत्कार है। जीवन की गाड़ी को मोड़ देना, उसके चक्के बदल देना, वह सब तेरे अधिकार में हैं। तू अपनी गाड़ी का प्रभुसत्ता सम्पन्न मालिक होकर भी साधारण-से क्रीतदास की तरह खडा देख रहा है, यह ठीक नहीं।" इस प्रकार कर्मयोग मन में आत्मनिर्भरता का साहसभाव जगाता है। अपना दायित्व अपने ऊपर लेने की वृत्ति को प्रोत्साहन देता है। एकत्व भावना : अनाथता नहीं:
जैन संस्कृति में मन का परिशोधन करने के लिए बारह भावनाएँ बतलाई गई हैं। उनमें एकत्व भावना तथा अशरण भावना भी एक है। आप एकत्व का अर्थ करते हैं-"कोई किसी का नहीं है, जीव अकेला. आया है, अकेला जायेगा, सब जग स्वार्थी है, माता-पिता, पति-पत्नी सब स्वार्थ के सगे हैं, मतलब के यार हैं। मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, आदि।" मैं नहीं कहता कि सिद्धान्ततः यह कोई गलत बात है, किन्तु इस चिन्तन के पीछे जो दृष्टि छिपी है, उसे हम नहीं पकड़ सके हैं। 'मैं अकेला हूँ' इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम संसार को स्वार्थी और मक्कार कहने लगें। अपने को असहाय और अनाथ समझ कर चलें; जीवन में दीनता के संस्कार भरकर समाज और परिवार के कर्त्तव्य से विमुख होकर निरीह स्थिति में पड़े रहें। यह तो समाजद्रोही वृत्ति है, इससे अन्तर्मन में दीनता और हीनता आती है। एकत्व का सही अर्थ यह है कि "जीवन के क्षेत्र में मैं अकेला हूँ, मेरा निर्माण मुझे ही करना है, मेरे कल्याण और अकल्याण का उत्तरदायी मैं स्वयं ही हूँ-"अप्पा कत्ता विकत्ता य" मेरी आत्मा ही मेरे सुख और दुःख का कर्ता-हर्ता है-दूसरा कोई नहीं। इस प्रकार का चिन्तन करना ही वस्तुतः एकत्व का अर्थ है। अपना दायित्व अपने ऊपर स्वीकार करके चलना-यह एकत्व भावना है। और, यही वस्तुतः कर्मयोग है। हमारे मन में एकत्व की फलश्रुति-आत्म-सापेक्षता के रूप में जागनी चाहिए, असहायता एवं अनाथता के रूप में नहीं।
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