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भक्ति, कर्म और ज्ञान १७९ जब समस्याएँ घेर लेती हैं, तो भगवान् को हाथ जोड़ता है- " प्रभु! मेरे कष्ट मिटादो! मैं तुम्हारा अबोध बालक हूँ।" इस प्रकार की प्रार्थनाएँ भारत के प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय में प्रचलित हैं। वैदिक परम्परा में तो इसका जन्म ही हुआ है, मानव मन का सत्य तो यह है कि साधना के प्रत्येक प्रथम काल में प्रत्येक साधक इसी भाव की ओर उन्मुख होता है, बचपन की तरह जीवन की यह सहज वृत्ति इसमें विचारों की अस्फुटता, भोलापन और एक सुकुमारता का भाव छिपा है, जो मानव मन की सहज धारा है। इसलिए चाहे वैदिक परम्परा है, बौद्ध परम्परा है, या जैन परम्परा । सर्वत्र भक्तियोग का प्रवाह उमड़ा, साधक उसकी धारा में बहे और काफी दूर तक बह गये । स्तोत्र, पाठ और प्रार्थनाएँ रची गईं, विनतियाँ गाई गईं और इसके माध्यम से साधक भगवान् का आँचल पकड़कर चलने का आदी रहा ।
जब तक साधक को अपने अस्तित्व का सही बोध प्राप्त नहीं हो जाता, जब तक वह यह नहीं समझ लेता है कि भगवान् का बिम्ब ही भक्त में परिलक्षित हो रहा है। जो उसमें है, वह मुझ में है, यह अनुभूति (जिसे सखाभाव कहते हैं) जब तक जागृत नहीं हो जाती, तब तक उसे भगवान् के सहारे की अपेक्षा रहती है । भक्ति के आलम्बन की आवश्यकता होती है । निराशा और कुण्ठा उसके कोमल मन को दबोच न ले, इसके लिए भगवान् की शरण भी अपेक्षित रहती है। हाँ, यह शरण उसे भय से भागना सिखाती है, मुकाबला करना नहीं, कष्ट से बचना सिखाती है, लड़ने की क्षमता नहीं जगा सकती।
साधना का यौवन : कर्मयोग
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युवा अवस्था जीवन की दूसरी अवस्था है। जब बचपन का भोलापन समझ में बदलने लगता है, सुकुमारता शौर्य में प्रस्फुरित होने लगती है, माँ का आँचल पकड़े रहने की वृत्ति सीना तानकर खड़ा होने में परिवर्तित होने लगती है, तो हम कहते हैं - बच्चा जवान हो रहा है। अगर कोई नौजवान होकर भी माँ को पुकारे कि "माँ सहारा दे, मेरी अँगुली पकड़ कर चला, नहीं तो मैं गिर जाऊँगा । कुत्ता आ गया, इसे भगा दे, मक्खियाँ मुँह पर बैठ रही हैं, उड़ा दे । गंदा हो गया हूँ, साफ कर दे, मुँह में ग्रास देकर खिलादे" तो कोई क्या कहेगा ? अरे! यह कैसा जवान है, अभी बचपन की आदतें नहीं बदलीं और माँ-बाप भी क्या ऐसे युवा पुत्र पर प्रसन्नता और गर्व अनुभव कर सकते हैं ? उन्हें चिन्ता होती है, बात क्या है ? डाक्टर को दिखाओ ! यह अभी तक ऐसा क्यों करता है ?
तात्पर्य यह है कि यौवन वह है, जो आत्मनिर्भरता से पूर्ण हो । जवानी दूसरों का मुँह नहीं ताकती। उसमें स्वावलम्बन की वृत्ति उभरती है, अपनी समझ और अपना साहस होता है। वह भय और कष्ट की घड़ी में भागकर माँ के आँचल में नहीं छुपता, बल्कि सीना तानकर मुकाबला करता है। वह दूसरों के सहारे पर भरोसा नहीं करता, अपनी शक्ति, स्फूर्ति और उत्साह पर विश्वास करके चलता है।
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