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________________ १९ भक्ति, कर्म और ज्ञान मानव जीवन की तीन अवस्थाएँ हैं (१) बचपन ! (२) जवानी ! और (३) बुढ़ापा ! मानव का जीवन इन तीन धाराओं से गुजरता है, और प्रत्येक धारा के साथ एक विशेष प्रकार की वृत्ति जन्म लेती है और, अवस्था विशेष के साथ-साथ वह वृत्ति बदलती भी रहती है। जीवन की प्रथम अवस्था है बचपन ! शैशव ! बालक की वृत्ति परापेक्षी होती है । वह सहारा खोजता है, प्रारम्भ में चलने के लिए उसे कोई न कोई अँगुली पकड़ने वाला चाहिए। माँ उसे अँगुली पकड़कर चलाती है, अपने हाथ से खिलाती है । वह खुद खा भी नहीं सकता । गन्दा हो जाए तो खुद साफ भी नहीं हो सकता। कोई सफाई करने वाला, नहलाने वाला चाहिए। अपने हाथ से नहा भी नहीं सकता । खड़ा रहेगा कि कोई नहला दे, देखता रहेगा कि कोई खिलादे । मतलब यह है कि बालक की प्राय: हर प्रवृत्ति पूर्ति के लिए किसी दूसरे की अपेक्षा रखती है, माँ हो, या अन्य कोई, जब उसे सहारा मिलेगा, तभी उसकी अपेक्षा पूरी हो सकेगी। साधना का शैशव : भक्तियोग : हमारी साधना भी इस प्रकार के एक शैशवकाल के बीच से गुजरती है, उस अवस्था का नाम है- भक्तियोग ! भक्त अपने आप को एक बालक के रूप में समझता है । वह भगवान् के समक्ष अपने को उनके बालक के रूप में ही प्रस्तुत करता है। भक्त अपने व्यक्तित्व का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं समझता। जीवन में स्वयं के कर्त्तापन का भाव जागृत नहीं होने देता । भगवान् से ही सब कुछ अपेक्षा रखता है- " प्रभु तू ही तारने वाला है, तू ही मेरा रक्षक है ! जो कुछ है तू ही है। " त्वमेव माता च पिता त्वमेव " यहं भगवदाश्रित वृत्ति है, जिसे साधना की भाषा में ' भक्तियोग' कहा जाता है। 'भक्तियोग' जीवन की प्राथमिक दशा में अपेक्षित रहता है। बालक को जब तक अपने अस्तित्व का बोध नहीं होता, वह माता की शरण चाहता है। भूख लगी तो माँ के पास दौड़कर जाएगा। प्यास लगी तो माँ को पुकारेगा। कोई भय तथा कष्ट आता है, तो माँ के आँचल में छुप जाता है। भक्त का मन भी जब व्याकुल होता है, तो वह भगवान् को पुकारता है, जब कष्ट आते हैं, तो भगवान् की शरण में जाता है, प्रार्थना करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only .. www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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