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________________ १७६ चिंतन की मनोभूमि आज का धार्मिक जीवन उलझा हुआ है, सामाजिक जीवन समस्याओं से घिरा है, राजनीतिक जीवन तनाव और संघर्ष से अशान्त है । इन सबका समाधान एक ही हो सकता है और वह है निश्चय धर्म की साधना अर्थात् जीवन में वीतरागता, अनासक्ति ! वीतरागता का दृष्टिकोण व्यापक है। हम अपनी वैयक्तिक, सामाजिक एवं साम्प्रदायिक मान्यताओं के प्रति भी आसक्ति न रखें, आग्रह न करें, यह एक स्पष्ट दृष्टिकोण है । सत्य के लिए आग्रही होना एक चीज है और मत के लिए आग्रही होना दूसरी चीज । सत्य का आग्रह दूसरे के सत्य को ठुकराता नहीं, अपितु सम्मान करता है। जबकि मत का आग्रह दूसरे के अभिमत सत्य को सत्य होते हुए भी ठुकराता है, उसे लांछित करता है। सत्य के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं होती, उसके लिए साधना करनी पड़ती है। मन को समता और अनाग्रह से जोड़ना होता है। सामाजिक सम्बन्धों में वीतरागता का अर्थ होता है- आप अपने सुख के पीछे पागल नहीं रहें, धन और परिवार के व्यामोह में फँसें नहीं । आपका मन उदार हो और सहानुभूतिपूर्ण हो, दूसरे के लिए अपने सुख का त्याग करने को प्रस्तुत हो, तो सामाजिक क्षेत्र में भी निश्चय धर्म की साधना हो सकती है। 1 राजनीतिक जीवन भी आज आसक्तियों के गन्दे जल से कुलबुला रहा है विचारों की आसक्ति, पद और प्रतिष्ठा की आसक्ति, कुर्सी की आसक्ति ! दल और दल से मिलने वाले फल की आसक्ति ! जीवन का हर कोना आसक्तियों से जकड़ा हुआ है— फलतः जीवन संघर्षमय है। धर्म का वास्तविक रूप यदि जीवन में आ जाए, तो यह सब विवाद सुलझ सकते हैं, सब प्रश्न हल हो सकते हैं और धर्म फिर एक विवादास्पद प्रश्न के रूप में नहीं, बल्कि एक सुनिश्चित एवं सुनिर्णीत जीवन दर्शन के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होगा । कर्त्तव्य और धर्म : धर्मनिष्ठ व्यक्ति वह है, जिसे कर्तव्य पालन का दृढ़ अभ्यास है। जो व्यक्ति संकट के विकट क्षणों में भी अपने कर्त्तव्य का परित्याग नहीं करता, उससे बढ़कर इस जगती - तल पर अन्य कौन धर्मशील हो सकता है ? कर्त्तव्य और धर्म में परस्पर जो सम्बन्ध है, वह तर्कातीत है, वहाँ तर्क की पहुँच नहीं है । कर्त्तव्य-कर्मों के दृढ़ अभ्यास से, अनुष्ठान करने से धार्मिक प्रवृत्तियों का उद्भव होता है । अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे प्रत्येक कर्त्तव्य, धर्म में परिणत हो जाता है । कर्त्तव्य, उस विशेष कर्म की ओर संकेत करता है, जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए। कर्त्तव्य करने के अभ्यास से, धर्म की विशुद्धि बढ़ती है, अतः यह कहा जा सकता है कि धर्म और कर्त्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे के विघटक नहीं। क्योंकि धर्म का कर्त्तव्य में प्रकाशन होता है और कर्त्तव्य में धर्म की अभिव्यक्ति होती है। धर्म क्या है, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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