________________
|१७४ चिंतन की मनोभूमि मान लिया गया, तिलक होने मात्र से ही दुराचारी की आत्मा को स्वर्ग का अधिकार मिल गया! धर्म की तेजस्विता और पवित्रता का इससे बड़ा और क्या उपहास होगा।
इस प्रकार की एक नहीं, सैकड़ों, हजारों अन्धमान्यताओं से धार्मिक-मानस ग्रस्त होता रहा है। जहाँ तोते को राम-राम पढ़ाने से वेश्या को बैकुण्ठ मिल जाता है, सीता को चुराकर राम के हाथ से मारे जाने पर रावण की मुक्ति हो जाती है, वहाँ धर्म के आन्तरिक स्वरूप की क्या परख होगी?
धर्म के ये कुछ रूढ़ रूप हैं, जो बाहर में अटके हुए हैं, और मानव मन इन्हीं की भूल-भुलैया में भटक रहा है। हम भी, हमारे पड़ोसी भी, सभी एक ऐसे दलदल में फँस गए हैं कि धर्म का असली किनारा आँखों से ओझल हो रहा है और जो किनारा दिखाई दे रहा है, वह सिर्फ अन्धविश्वास और गलत मान्यताओं की शैवाल से ढका हआ अथाह गर्त है।
बौद्ध परम्परा में भिक्षु को चीवर धारण करने का विधान है। चीवर का मतलब है, जगह-जगह पर सिला हुआ जीर्ण वस्त्र, अर्थात् कन्था ! इसका वास्तविक अर्थ तो यह था कि जो फटा-पुराना वस्त्र गृहस्थ के लिए निरुपयोगी हो गया हो, वह वस्त्र भिक्षु धारण करे। पर, आज क्या हो रहा है ? आज भिक्षु बिल्कुल नया और सुन्दर वस्त्र लेते हैं, बढ़िया रेशमी! फिर उसके टुकड़े-टुकड़े करते हैं, और उसे सीते हैं,
और इस प्रकार चीवर की पुरानी व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसे चीवर मानकर ओढ़ लेते हैं। धर्म की अन्तर्दृष्टि :
वे सब धर्म को बाहर में देखने वालों की परम्पराएँ हैं। वे बाहरी क्रिया को, रीति-रिवाज, पहनाव और बनाव आदि को ही धर्म समझ बैठे हैं, जबकि ये तो एक सभ्यता और कुलाचार की बातें हैं।
बाहर में कोई नग्न रहता है, या श्वेत वस्त्र धारण करता है, या गेरुआ चीवर पहनता है, तो, धर्म को इनसे नहीं तोला जा सकता। वेषभूषा, बाहरी व्यवस्था और बाहरी क्रियाएँ कभी धर्म का पैमाना नहीं हो सकतीं। इनसे जो धर्म को तोलने का प्रयत्न करते हैं, वे वैसी ही भूल कर रहे हैं, जैसी कि मणिमुक्ता और हीरों का वजन करने के लिए पत्थर और कोयला तोलने के काँटे का इस्तेमाल करने वाला करता है।
धर्म का दर्शन करने की जिन्हें जिज्ञासा है, उन्हें इन बाहरी आवरणों को हटाकर भीतर में झाँकना होगा। क्रियाकांडों की बाह्य भूमिका से ऊपर उठकर मन की आन्तरिक भूमिका तक चलना होगा। आचार्य हरिभद्र ने कहा है
"सेयंबरो य आसंबरो य,
बुद्धो व अहव अन्नो वा। समभावभावियप्या,
लहई मोक्खं न संदेहो॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org