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________________ | १६२ चिंतन की मनोभूमि व्यवहार नय और असद्भूत व्यवहार नय। एक वस्तु में गणगुणी के भेद से भेद को विषय करने वाला सद्भूत व्यवहार नय है। इसके भी दो भेद हैं-उपचरित सद्भूत व्यवहार नय और अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय। सोपाधिक गुण एवं गुणी में भेद ग्रहण करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहार नय है। निरुपाधिक गुण एवं गुणी में भेद ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है। जैसे जीव का मति-ज्ञान तथा श्रुतज्ञान इत्यादि लोक में व्यवहार होता है। इस व्यवहार में उपाधिरूप ज्ञानावरण कर्म के आवरण से कलुषित आत्मा का मलसहित ज्ञान होने से जीव के मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान सोपाधिक हैं, अत: यह उपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है। निरुपाधिक गुण-गुणी के भेद को ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है। उपाधिरहित गुण के साथ जब उपाधिरहित आत्मा का सम्बन्ध बताया जाता है, तब निरुपाधिक गुण-गुणी के भेद से अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय सिद्ध होता है जैसे केवल ज्ञानरूप निरुपाधिक गुण से सहित निरुपाधिक केवल ज्ञानी की, आत्मा। केवल ज्ञान आत्मा का सर्वथा निरावरण शुद्ध ज्ञान है। अतः वह उपाधिरहित होने से निरुपाधिक है। इसलिए वीतराग आत्मा का केवल ज्ञान, यह प्रयोग निरुपाधिक गुण गुणी के भेद का है। असद्भूत व्यवहार नय के भी दो भेद हैं-उपचरित असद्भूत व्यवहार अनुपचरित असद्भूत व्यवहार। सम्बन्ध से रहित वस्तु में सम्बन्ध को स्वीकार और विषय करने वाला नय उपचरित असद्भुत कहा जाता है, क्योंकि सम्बन्ध का योग न होने पर भी कल्पित सम्बन्ध मानने पर उपचरित असद्भूत व्यवहार होता है जैसे 'देवदत्त का धन।' यहाँ पर देवदत्त का धन के साथ सम्बन्ध माना गया है, परन्तु वास्तव में वह कल्पित होने से उपचरित है, क्योंकि देवदत्त और धन—वास्तव में दोनों दो भिन्न द्रव्य हैं, एक द्रव्य नहीं हैं। इसलिए भिन्न द्रव्य होने से देवदत्त तथा धन में यथार्थ सम्बन्ध नहीं है, उपचरित है। अतः असद्भुत एवं उपचरित होने के कारण इसे उपचरित असद्भूत व्यवहार नय कहते हैं। सम्बन्ध से सहित वस्तु में सम्बन्ध को विषय करने वाला नय अनुपचरित असद्भूत नय कहा जाता है। इस प्रकार का भेद वहाँ होता है, जहाँ कर्म जनित सम्बन्ध होता है जैसे जीव का शरीर। यहाँ पर आत्मा और शरीर का सम्बन्ध देवदत्त और उसके धन के समान कल्पित नहीं है, किन्तु जीवन-पर्यन्त स्थायी होने से अनुपचरित है। जीव और शरीर के भिन्न होने - से वह असद्भूत व्यवहार भी है। इस प्रकार संक्षेप में आध्यात्मिक दृष्टि से यह व्यवहार नय का वर्णन किया गया है। अब नय के सम्बन्ध में एक प्रश्न और खड़ा होता है, कि वस्तुतः नयों की संख्या कितनी है ? नयों की संख्या के सम्बन्ध में आचार्यों का एक मत नहीं है। नयों के अगणित एवं असंख्यात भेद हैं, फिर भी अति विस्तार तथा अति संक्षेप को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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