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________________ - नयवाद १६१ मानता है, जबकि वह इन्दन आदि क्रियाओं में वर्तमान में परिणत हो । एवम्भूत नय इन्दन क्रिया का अनुभव करते समय ही इन्द्र को इन्द्र का वाच्य मानता है, अन्यथा नहीं। एवम्भूत नय के मत से इन्द्र तभी इन्द्र है, जबकि वह ऐश्वर्यशाली हो। । यहाँ तक नयों पर दार्शनिक दृष्टि से विचार किया गया है। अब आध्यात्मिक दृष्टि से भी नयों पर विचार कर लेना चाहिए। जैन दर्शन के अनेक ग्रंथों में आध्यात्मिक दृष्टि से भी नयों पर विचार किया गया है। मैं आपको यहाँ पर संक्षेप में यह बतलाने का. प्रयत्न करूंगा कि आध्यात्मिक दृष्टि से नय के स्वरूप का प्रतिपादन किस प्रकार किया गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से नय के दो भेद हैं-निश्चय नय और व्यवहार नय। व्यवहार नय को उपनय भी कहा गया है। जो नय वस्तु के मूल स्वरूप को बतलाता है, उसे निश्चय नय कहा जाता है। जो नय दूसरे पदार्थों के निमित्त से वस्तु के स्वरूप को अन्यथा बतलाता है, उसे व्यवहार नय कहा जाता है। यद्यपि व्यवहार नय वस्तु के स्वरूप को दूसरे रूप में बतलाता है. तथापि वह मिथ्या नहीं है क्योंकि जिस अपेक्षा से अथवा जिस रूप में वह वस्तु को विषय करता है, वह वस्तु उस रूप में उपलब्ध भी होती है। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं—'घी का घड़ा।' इस वाक्य से वस्तु के असली स्वरूप का ज्ञान तो नहीं होता, यह तो नहीं मालूम पड़ता कि घड़ा मिट्टी का है, पीतल का है, अथवा अन्य किसी धातु का है। इसलिए इसे निश्चय नय नहीं कह सकते। लेकिन उक्त वाक्य से इतना अवश्य ज्ञान हो जाता है, कि उस घड़े में घी' रखा जाता है। जिसमें घी रखा जाता हो, उस घड़े को व्यवहार नय में घी का घड़ा कहते हैं। उक्त कथन व्यवहार नय से.सत्य है और इसी आधार पर व्यवहार नय भी सत्यरूप है, मिथ्या रूप नहीं। व्यवहार नय मिथ्या तभी हो सकता है, जबकि उसका विषय निश्चय का विषय मान लिया जाए। यदि आप ‘घी का घड़ा'- इसका अर्थ यह समझे कि घड़ा घी का बना हुआ है, तो लोक में कहीं पर भी यह बात सत्य प्रमाणित नहीं हो सकती, क्योंकि कहीं पर भी घड़ा घी से बनता नहीं, बल्कि घड़ा घी का आधार मात्र ही रहता है। जब तक व्यवहार नय अपने व्यावहारिक सत्य पर स्थिर है, तब तक उसे मिथ्या नहीं कहा जा सकता। निश्चय नय के दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वस्तु के सामान्य धर्म को विषय करने वाले नय को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं। वस्तु के विषय धर्म को ग्रहण करने वाला नय पर्यायार्थिक कहा जाता है। द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं-नैगम. संग्रह और व्यवहार। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं---ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत। इस प्रकार यह वर्गीकरण आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है। इसके भेद और उपभेद में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय नय का स्वरूप मैंने आपको बतलाया। अब आध्यात्मिक दृष्टि से व्यवहार नय का स्वरूप भी समझ लेना आवश्यक है। व्यवहार नय का लक्षण आपको बताया जा चुका है। व्यवहार नब के दो भेद हैं--सद्भूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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