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प्राक्कथन
उपाध्याय श्री अमरमुनिजी ने 'चिन्तन की मनोभूमि' नामक ग्रन्थ लिखकर बड़ा उपकार किया है। इस समय भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या बड़े भीषण रूप में उपस्थित हुई है। इसका प्रमुख कारण यह प्रतीत होता है कि धर्म और संस्कृति का, सही अर्थ में भेद नहीं किया जा रहा है। भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही अनेक धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ। बौद्ध और जैनधर्म, वैदिक धर्म से—जिसे आज हिन्दूधर्म कहा जाता है—अलग रहे, किन्तु भारतीय संस्कृति एवं जीवन-विधि को सभी ने अपनाया और उसमें सबों की निष्ठा समानरूप से रही। आजकल लोग, यह सोचते हैं, कि भारतीय संस्कृति को हिन्दूधर्म से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि वही बहुसंख्यक अनुयायियों का धर्म है और अन्य सब लोगों पर उसकी गहरी छाप पड़ चुकी है, और भारत की गति-विधि उसी से निर्धारित होती है। इसलिए उसके अतिरिक्त कोई भारतीय संस्कृति है, इसकी कल्पना भी करना कठिन है। किन्तु इस अविवेक से समस्या का समाधान नहीं होता। आज के युग में जबकि राज्य का स्वरूप ऐहिक है और उसकी दृष्टि में सब धर्म समान प्रतिष्ठा रखते हैं, तब उनमें से कोई एक धर्म अन्य सब धर्मों के व्यक्तित्व का लोप करके अपनी सर्वोपरि सत्ता स्थापित नहीं कर सकता और न अन्य लोगों से यह माँग या आशा ही की जा सकती है कि वे हिन्दूधर्म और तथाकथित हिन्दू संस्कृति को अपनी सर्वोपरि निष्ठा अर्पित करें और अपने धर्मों एवं उनमें सन्निहित संस्कृतियों को हीन स्थान दें। सामाजिक न्याय का तकाजा है कि धर्म और संस्कृति को अलग-अलग समझा जाए और सब धर्मों से समान भारतीय संस्कृति के लिए---न कि हिन्दू धर्म अथवा हिन्दू संस्कृति के लिए-निष्ठा माँगी जाए। भारतीय संस्कृति को एक सम्मिलित संस्कृति के रूप में देखा जाए, जिसके निर्माण में, भारत में उत्पन्न हुए तथा बाहर से आए हुएसभी धर्मों एवं उनके साथ संश्लिष्ट संस्कृतियों अथवा उपसंस्कृतियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह संस्कृति-भारतीय संस्कृति-सब धर्मों की है और सबसे पृथक् है।
उपाध्यायजी ने जैन धर्म की जिस अनेकांत समन्वय दृष्टि का इस ग्रन्थ में प्रतिपादन किया है और भारत के हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि सभी धर्मों की जो उदार व्याख्या की है, उससे सबका विरोध-परिहार होता है और साथ ही साथ इन सबके योगदान से बनी हुई सम्मिलित भारतीय संस्कृति सबकी आदर दृष्टिसम्पन्न होती है। .. मैं इस युग में इस प्रकार की कृति का स्वागत करता हूँ। इससे बड़ी आवश्यकता की पूर्ति होगी और अध्येताओं के लिए एक ऐसा आधार बनेगा कि वे भारतीय संस्कृति के ऐसे व्यापक तत्त्वों का, जो भारत के सभी धर्मों में अनुस्युत हैं, अध्ययन करें और इस प्रकार सभी धर्मों से पृथक् सामान्य भारतीय संस्कृति का एक रूप प्रस्फुटित करें। .
६-३-१९७० ई. वाराणसी-२
राजाराम शास्त्री
उपकुलपति, काशी विद्यापीठ
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