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दो शब्द
भारत की आध्यात्मिक- परम्पराओं में जैन धर्म और संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष, सृष्टि-रूप आदि के सम्बन्ध में जैन-दर्शन के अपने विचार हैं । ' अनेकान्तवाद' और 'स्याद्वाद' के सिद्धान्त उसकी मौलिकता के प्रबलतम प्रतीक हैं। सांख्य-योग की भाँति जैन- दर्शन सृष्टिकर्त्ता ईश्वर को स्वीकार नहीं करता; अद्वैतवेदान्त की तरह वह आत्मा के स्वरूपलाभ को ही मोक्ष मानता है। वैशेषिक के समान वह परमाणुवादी है। उसके ज्ञान-सम्बन्धी कतिपय विचारं वर्तमान परामनोविज्ञान का पूर्वाभास देते हैं।
श्री अमरमुनिजी जैन- परम्परा के ख्यातिप्राप्त व्याख्याता हैं। अब तक वे अनेक पुस्तकों का प्रणयन कर चुके हैं। उनकी भाषा प्रच्छन्न- प्राञ्जल और अभिव्यक्ति आत्मीयता से संयुक्त है। वे प्रायः अनुभूत, आत्मसात् किये हुए सत्य को ही शब्दबद्ध करते हैं; अत: उनकी बात पाठक के मन को छूती है।
मुनिजी दोहरे अर्थ में उदारचित्त हैं। प्रथम, वे दूसरे धर्मों - सम्प्रदायों की शिक्षाओं को सहानुभूति से देखने की क्षमता रखते हैं, जो 'अनेकान्त' का व्यावहारिक रूप है; दूसरे, वें जीवन की माँगों के प्रति भी कठोर नहीं हैं। फलतः वे जैन- दर्शन तथा अध्यात्म की ऐसी व्याख्या दे सके हैं, जो आधुनिक जिज्ञासुओं को मान्य हो । मुनिजी की सहज समन्वयमूलक दृष्टि और उनका विभिन्न दर्शन-परम्पराओं से अन्तरंग परिचय, इस ग्रन्थ को सब प्रकार के पाठकों के लिए रुचिकर व उपादेय बनाते हैं।
इसके अतिरिक्त 'चिन्तन की मनोभूमि' के लेखक लीक से अलग होकर चलने में झिझक महसूस नहीं करते। आशा है, समझदार पाठक और जिज्ञासु इस ग्रन्थ को समुचित आदर देंगे ।
१० मार्च, १९७० ई. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी-५
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डॉ. देवराज,
एम. ए., डी. फिल्. डी. लिट्. अध्यक्ष, दर्शन विभाग
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