SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन की आधारशिला : अनेकान्त ११७ वस्तु अनन्त धर्मात्मक है : जैनधर्म की मान्यता है कि प्रत्येक पदार्थ, चाहे वह छोटा-सा रजकण हो, चाहे विराट हिमालय वह अनन्त धर्मों का समह है। धर्म का अर्थ_गण है, विशेषता है। उदाहरण के लिए आप फल को ले लीजिए। फल में रूप भी है, रस.भी है, गंध भी है, स्पर्श भी है, आकार भी है, भूख बुझाने की शक्ति है, अनेक रोगों को दूर करने की शक्ति है और अनेक रोगों को पैदा करने की भी शक्ति है। कहाँ तक गिनाएँ ? हमारी बुद्धि बहुत सीमित है, अतः हम वस्तु के सब अनन्त धर्मों को बिना अनन्त ज्ञान हुए, नहीं जान सकते। परन्तु स्पष्टतः प्रतीयमान बहुत से धर्मों को तो अपने बुद्धि बल के अनुसार जान ही सकते हैं। __ हाँ तो पदार्थ को केवल एक पहलू से, केवल एक धर्म से जानने का या कहने का आग्रह मत कीजिए। प्रत्येक पदार्थ को पृथक्-पृथक पहलुओं से देखिए और कहिए। इसी का नाम अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद हमारे दृष्टिकोण को विस्तृत करता है, हमारी विचारधारा को पूर्णता की ओर ले जाता है। 'भी' और 'ही': ___ फल के सम्बन्ध में जब हम कहते हैं कि फल में रूप भी है, रस भी है, गंध भी है, स्पर्श भी है आदि ; तब तो हम अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का उपयोग करते हैं और फल का यथार्थ निरूपण करते हैं। इसके विपरीत जब हम एकांत आग्रह में आकर यह कहते हैं कि फल में केवल रूप ही है, रस ही है, गंध ही है, स्पर्श ही है, आदि; तब हम मिथ्या एकान्तवाद का प्रयोग करते हैं। 'भी' में दूसरे धर्मों की स्वीकृति का स्वर छिपा हुआ है, जबकि 'ही' में दूसरे धर्मों का स्पष्टतः निषेध है। रूप भी है इसका यह अर्थ है कि फल में रूप भी है और दूसरे रस आदि धर्म भी हैं और रूप ही है, इसका यह अर्थ है कि फल में मात्र रूप ही है, रस आदि कुछ नहीं। यह 'भी' और 'ही' का अन्तर ही स्याद्वाद और मिथ्यावाद है। 'भी' स्याद्वाद है, तो 'ही' मिथ्यावाद। एक आदमी बाजार में खड़ा है। एक ओर से एक लड़का आया। उसने कहा'पिताजी।' दूसरी ओर से एक बूढ़ा आया। उसने कहा-'पुत्र!' तीसरी ओर से एक समवयस्क व्यक्ति आया। उसने कहा-'भाई!' चौथी ओर से एक लड़का आया। उसने कहा-'मास्टर जी!' मतलब यह है कि उसी आदमी को कोई चाचा कहता है, कोई ताऊ कहता है, कोई मामा कहता है, कोई भानजा कहता है। सब झगड़ते हैं—यह तो पिता ही है; पुत्र ही है, भाई ही है, मास्टर ही है, और चाचा, ताऊ, मामा या भानजा ही है। अब बताइए, निर्णय कैसे हो? उनका यह संघर्ष कैसे मिटे? वास्तव में वह आदमी है क्या ? यहाँ पर स्यावाद को न्यायाधीश बनाना पड़ेगा। स्याद्वाद पहले लड़के से कहता है हाँ, यह पिता भी है। तुम्हारे लिए तो पिता है, चूँकि तुम इसके पुत्र हो। और अन्य लोगों का तो पिता नहीं है। बूढ़े से कहता है—हाँ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy