________________
११६ चिंतन की मनोभूमि अनेकान्तवाद की कोरी बात भर ही करते हैं, किन्तु इनके जीवन में अनेकान्त है नहीं। सिद्धसेन दिवाकर ने और समन्तभद्र ने अपने-अपने युग में जिस अनेकान्तवाद के आधार पर विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों का समन्वय किया था, आश्चर्य है, उसी परम्परा के अनुयायी अपना समाधान नहीं कर सके। इससे अधिक उपहास्यता और विडम्बना पूर्ण अनेकान्त की बात अन्य क्या होगी? श्वेताम्बरों का दावा है कि समग्र सत्य हमारे पास है और दिगम्बरों का दावा है कि समस्त तथ्य हमारे पास है। परन्तु मैं इसे एकान्तवाद कहता हूँ। एकान्तवाद, फिर भले ही वह अपना हो,या पराया हो, वह कभी अनेकान्त नहीं बन सकता। सम्प्रदायवाद और पंथवाद का पोषण करने वाले व्यक्ति जब अनेकान्त की चर्चा करते हैं, तब मुझे बड़ी हँसी आती है। मैं सोचा करता हूँ कि इन लोगों का अनेकान्तवाद केवल पोथी के पन्नों का अनेकान्तवाद है, वह जीवन का जीवन्त अनेकान्त नहीं है। आज हमें उस अहिंसा और उस अनेकान्त की आवश्यकता है, जो हमारे जीवन के कालुष्य और मालिन्य को दूर करके, हमारे जीवन को उज्ज्वल और पवित्र बना सके, तथा जो हमारे इस वर्तमान जीवन को सरस, सुन्दर और मधुर बना सके एवं समन्वय की भावना हमारी रग-रग में भर सके।
अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की आधारशिला है। जैन तत्त्वज्ञान का महल, इसी अनेकान्तवाद के सिद्धान्त की आधारशिला पर अवलम्बित है। वास्तव में अनेकान्तवाद जैन-दर्शन का प्राण है। जैन-धर्म में जब भी, जो भी बात कही गई है, वह अनेकान्तवाद की कसौटी पर अच्छी तरह जाँच परख करके ही कही गई है। दार्शनिक साहित्य में जैन-दर्शन का दूसरा नाम अनेकान्तवादी दर्शन भी है।
अनेकान्तवाद का अर्थ है- प्रत्येक वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से विचार करना, परखना, देखना। अनेकान्तवाद का यदि एक ही शब्द में अर्थ समझना चाहें, तो उसे 'अपेक्षावाद' कह सकते हैं। जैनदर्शन में सर्वथा एक ही दृष्टिकोण से पदार्थ के अवलोकन करने की पद्धति को अपूर्ण एवं अप्रामाणिक समझा जाता है और एक ही वस्तु में विभिन्न धर्मों को विभिन्न दृष्टिकोणों से निरीक्षण करने की पद्धति को पूर्ण एवं प्रामाणिक माना जाता है। यह पद्धति ही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद:
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद एक ही सिद्धान्त के दो पहलू हैं, जैसे एक सिक्के के दो पहलू। इसी कारण सर्वसाधारण दोनों वादों को एक ही समझ लेते हैं। परन्तु ऊपर से एक होते हुए भी दोनों में मूलतः भेद है। अनेकान्तवाद यदि वस्तुदर्शन की विचारपद्धति है, तो स्याद्वाद उसकी भाषा-पद्धति। अनेकान्त दृष्टि को भाषा में उतारना स्याद्वाद है। इसका अर्थ हुआ कि वस्तुस्वरूप के चिन्तन करने की विशुद्ध और निर्दोष शैली अनेकान्तवाद है, और उस चिन्तन तथा विचार को अर्थात् वस्तुगत अनन्त धर्मों के मूल में स्थित विभिन्न अपेक्षाओं को दूसरों के लिए निरूपण करना, उनका मर्मोद्घाटन करना स्याद्वाद है। स्याद्वाद को 'कथंचित्वाद' भी कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org