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________________ जैन दर्शन की आधारशिला : अनेकान्त ११५ सकता। मैं उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूँ, जो जन-जन के जीवन को आलोकित करने वाला गुरु है ।" अनेकान्तवाद केवल तर्क का सिद्धान्त ही नहीं है, वह एक अनुभव - मूलक सिद्धान्त है । आचार्य हरिभद्र ने अपने एक ग्रन्थ में अनेकान्तवाद के सम्बन्ध में कहा है कि "कदाग्रही व्यक्ति की, जिस विषय में मति होती है, उसी विषय में वह अपनी युक्ति (तर्क) को लगाता है । परन्तु एक निष्पक्ष व्यक्ति उस बात को स्वीकार करता है, जो युक्ति-सिद्ध होती है।" अनेकान्त के व्याख्याकार आचार्यों में आचार्य सिद्धसेन ने अपने 'सन्मति - तर्क' ग्रन्थ में अनेकान्त की प्रौढ़ भाषा में और तर्कपुष्ट-पद्धति से व्याख्या की है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने आप्त-मीमांसा ग्रन्थ में अनेकान्त की जो गम्भीर और गहन व्याख्या की है, वह अपने ढंग की एक अनूठी है। आचार्य हरिभद्र ने अपने 'अनेकान्तवाद प्रवेश' और 'अनेकान्तजयपताका' जैसे मूर्धन्य ग्रन्थों में अनेकान्त का तर्कपूर्ण प्रतिपादन किया है। आचार्य अकलंकदेव ने अपने 'सिद्धि विनिश्चय' ग्रन्थ में अनेकान्त का जो उज्ज्वल रूप प्रस्तुत किया है, वह अपने आप में अद्भुत है। उपाध्याय यशोविजय ने नव्य न्याय की शैली में अनेकान्त, स्याद्वाद, सप्तभंगी और नयवाद पर अनेक ग्रन्थ लिखकर स्याद्वाद को सदा के लिये अजेय बना दिया है। इस प्रकार, हमारे प्राचीन आचार्यों ने जिस अहिंसा और अनेकान्त को पल्लवित और विकसित किया, वह भगवान् महावीर की मूल वाणी में, बीज रूप में पहले से ही सुरक्षित था । उक्त आचार्यों की विशेषता यही है कि उन्होंने अपने-अपने युग में अहिंसा और अनेकान्त पर तथा स्याद्वाद और सप्तभंगी पर होने वाले आक्षेपों और प्रहारों का तर्कसंगत एवं तर्कपूर्ण उत्तर दिया है। यही उनकी अपनी विशेषता है। आप और हम अहिंसा एवं अनेकान्त के गीत तो बहुत गाते हैं, किन्तु क्या कभी आपने यह समझने का प्रयत्न किया है कि आपके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अहिंसा कितनी है और अनेकान्त कितना है ? कोई भी सिद्धान्त पोथी के पन्नों पर कितना ही अधिक विकसित और पल्लवित क्यों न हो गया हो, किन्तु जब तक जीवन की धरती पर उसका उपयोग और प्रयोग नहीं किया जाएगा, तब तक उससे कुछ भी लाभ नहीं। जिस प्रकार अमृत के स्वरूप का प्रतिपादन करने से और उसके नाम की माला जपने मात्र से जीवन में संजीवनी शक्ति नहीं आती है, वह तभी आ सकती है, जबकि अमृत का पान किया जाए, उसी प्रकार अहिंसा और अनेकान्त का नाम रटने से और उसकी विशद व्याख्या करने से जीवन में स्फूर्ति और जागरण नहीं आ सकता, वह तभी आएगा, जबकि अहिंसा और अनेकान्त को जीवन की धरती पर उतार कर जिन्दगी के हर मोर्चे पर उसका उपयोग और प्रयोग किया जाएगा। खेद की बात है कि अनेकान्तवादी कहलाने वाले जैन भी अपने- अपने एकान्त को पकड़ कर बैठ गए हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बरों के संघर्ष, स्थानकवासी और तेरापंथियों के झगड़े, इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं, कि ये लोग केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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