SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ |११२ चिंतन की मनोभूमि और उसने उन्माद में भी उन्मेष को पाने का निरन्तर प्रयास किया है। उपनिषद् का एक ऋषि अपने हृदय की वाणी को शब्दों में व्यक्त करता है."असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय"-प्रभो, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो, और मुझे मरणशीलता से अमरता की ओर ले चलो। क्या आप इसे भारत का दुःखवाद एवं निराशावाद कहते हैं ? मैं इसे जीवन का पलायनवाद कहने की भूल नहीं कर सकता। भारत के दर्शनशास्त्र में यदि कहीं पर दुःख, निराशा और पलायनवाद के विचार मिलते भी हैं, तो वे इसलिए नहीं कि वह हमारे जीवन का लक्ष्य है, बल्कि वह इसलिए होता है कि हम अपने इस वर्तमान जीवन की दीन-हीन अवस्था को छोड़कर महानता, उज्ज्वलता और पवित्रता की ओर अग्रसर हो सकें। मूल में भारतीय दर्शन निराशावादी नहीं है। दुःखवाद को वह वर्तमान जीवन में स्वीकार करके भी अनन्त काल तक दुःखी रहने में विश्वास नहीं करता। वर्तमान जीवन में मृत्यु सत्य है, किन्तु वह कहता है, मृत्यु शाश्वत नहीं है, यदि साधक के हृदय में यह भावना जम जाए कि मैं आज मरणशील अवश्य हूँ, किन्तु सदा मरमशील नहीं रहूँगा, तो इसे आप निराशावाद नहीं कह सकते। यह तो उस निराशावाद को आशावाद में परिणत करने वाला एक अमर संकल्प है। भारतीय दर्शन प्रारम्भ में भले ही स्थूलदर्शी प्रतीत होता हो, किन्तु अन्त में वह सूक्ष्मदर्शी बन जाता है। स्थूलदर्शी से सूक्ष्मदर्शी बनना और सूक्ष्मदर्शी से सर्वदर्शी बनना ही उसके जीवन का लक्ष्य है। हमारे दर्शन, हमारे धर्म और हमारी संस्कृति के सम्बन्ध में जो कुछ विदेशी विद्वानों ने कहा है, उसे आँख मूंदकर स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। आप अपनी बुद्धि की तुला पर तोल कर ही उसे ग्रहण करने का अथवा छोड़ने का प्रयत्न करें, अन्यथा बहुत-सा अन्धविश्वास आप ग्रहण कर लेंगे। प्राचीन काल में भारतीय दर्शन उदार और विशाल दृष्टिकोण का रहा है, क्योंकि वह सत्य का अनुसंधान करने के लिए चला था। सत्य-शोधक के लिए आवश्यक है कि वह अपने दृष्टिकोण को व्यापक और विशाल रखे। जहाँ भी सत्य हो, उसे ग्रहण करने की भावना रखे, और जो कुछ असत्य है, उसे छोड़ने का बल एवं साहस भी उसमें हो। सत्य के उपासक के लिए किसी के मत का खण्डन करना आवश्यक नहीं है, खण्डन और मण्डन दोनों ही सत्य से दूर रहने वाले बौद्धिक द्वन्द्व हैं। दूसरे के खण्डन करने के लिए अपने मण्डन की आवश्यकता रहती है और फिर अपने मण्डन के लिए दूसरे का खण्डन आवश्यक हो जाता है। सत्य की उपलब्धि से खण्डन का किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, खण्डन में दूसरे के प्रति घृणा और उपेक्षा का भाव रहता है, किन्तु सत्य को पाने का पथ, खण्डन और मण्डन से अति दूर है। दुर्भाग्य है कि मध्यकाल में आकर भारतीय दर्शन में खण्डन-मण्डन की परम्परा चल पड़ी, अपना मण्डन करना और दूसरों का खण्डन करना, यही एक मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy