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________________ ११३ जैन दर्शन की समन्वय-परम्परा उनका लक्ष्य बन गया था । प्रारम्भ में खण्डन दूसरों का किया जाता था किन्तु आगे चल कर यह खण्डन की परम्परा सर्वग्रासी बन गई और एक ही पंथ और एक ही परम्परा के लोग परस्पर एक-दूसरे का ही खण्डन करने लग गए। शंकर के अद्वैतवाद का खण्डन किया मध्व ने और मध्व के द्वैतवाद का खण्डन किया शंकर के शिष्यों ने । शंकर मत का रामानुज मत ने खण्डन किया और रामानुज मत का शंकर मत ने खण्डन किया। मीमांसक ने नैयायिक का खण्डन किया और नैयायिक ने मीमांसक का खण्डन किया। इस प्रकार जिस वैदिक परम्परा ने जैन और बौद्ध के विरुद्ध मोर्चा खड़ा किया था, वे आपस में ही लड़ने लगे। बौद्धों में भी हीनयान और महायान को लेकर एक भयंकर खण्डन - मण्डन शुरू हो गया । महायान ने हीनयान को मिटा देना चाहा, तो हीनयान ने भी महायान को कुचल देने का दृढ़ संकल्प किया। बुद्ध के भक्त वैदिक और जैनों से लड़ते-लड़ते आपस में ही लंड़ मरे। इसी प्रकार जिन के उपासक जैन भी, जिनकी साधना का एक मात्र लक्ष्य है, राग और द्वेष से दूर होना, वे भी राग और द्वेष के झंझावात में उलझ गए। श्वेताम्बर और दिगम्बरों के संघर्ष कम भंयकर नहीं थे। यह बहुत लज्जा की बात थी कि अनेकान्त के मानने वाले परस्पर में ही लड़ पड़े और अपना मण्डन तथा दूसरों का खण्डन करने लगे। याद रखिए, यदि आप दूसरे के घर में आग लगाते हैं, तो वह आग फैलकर आपके घर में भी आ सकती है। यह कभी मत समझिए कि हम दूसरों का खण्डन करके अपना मण्डन कर सकेंगे। प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक पंथ काँच के महल में बैठा हुआ है, इसलिए उसे दूसरे को पत्थर मारकर अपने को सुरक्षित समझने की भूल नहीं करनी चाहिए । खेद है कि भारत का आध्यात्मवादी दर्शन अपने आध्यात्मवाद को भूलकर पंथवादी बनकर लड़ने को तैयार हो गया। भारतीय दर्शन का उज्ज्वल रूप खण्डन एवं मण्डन में नहीं है, वह है उसके समन्वय में और वह है उसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोण में । समन्वय ही गरतीय दर्शन का वास्तविक स्वरूप है और यही उसका मूल आधार है। जैनधर्म की अनेकांत - दृष्टि इसी समन्वय परम्परा को पुष्ट करती है। एक तरह से जैनदर्शन का मूल, यह समन्वय - परम्परा ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only > www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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