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________________ १०८ चिंतन की मनोभूमि है। वेदान्त दर्शन में आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन तो अद्वैत की चरम सीमा पर पहुँच गया है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार यह समग्र सृष्टि ब्रह्ममय है। कहीं पर भी ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं। जैन दर्शन के सांख्यदर्शन द्वैतवादी हैं। द्वैतवादी का अर्थ है-जड़ और चेतन, प्रकृति और पुरुष तथा जीव और अजीव-दो तत्त्वों को स्वीकार करने वाला दर्शन। इस प्रकार, एक चार्वाक को छोड़कर भारत के शेष सभी आध्यात्मवादी दर्शनों में आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न होते हुए भी उसकी नित्यता और अमरता पर सभी को आस्था है। भारतीय दर्शन के अनुसार यह एक सिद्धान्त है कि जो आत्मा की सत्ता को स्वीकार करता है, उसके लिए यह आवश्यक है कि वह कर्म की सत्ता को भी स्वीकार करे। चार्वाक को छोडकर शेष सभी भारतीय दर्शन कर्म और उसके फल को स्वीकार करते हैं। इसका अर्थ यह है कि शुभ कर्म का फल शुभ होता है और अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है। शुभ कर्म से पुण्य और अशुभ कर्म से पाप होता है। जीव जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसका जीवन अच्छा अथवा बुरा बनता रहता है। कर्म के अनुसार ही हम सुख और दुःख का अनुभव करते हैं, किन्तु यह निश्चित है कि जो कर्म का कर्ता होता है, वही कर्म-फल का भोक्ता भी होता है। भारत के सभी आध्यात्मवादी दर्शन कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन ने कर्म के सिद्धान्त की जो व्याख्या प्रस्तुत की है, वह अन्य सभी दर्शनों से स्पष्ट और विशद है। आज भी कर्मवाद के सम्बन्ध में जैनों के संख्याबद्ध ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। अध्यात्मवादी दर्शन को कर्मवादी होना आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक है। प्रश्न यह है कि यह कर्म कहाँ से अलग आता है ? और क्यों आता है ? कर्म एक प्रकार का पुद्गल ही है; यह आत्मा से एक विजातीय तत्त्व है। राग और द्वेष के कारण आत्मा कर्मों से बद्ध हो जाती है। माया, अविद्या और अज्ञान से आत्मा का विजातीय तत्त्व के साथ जो संयोग हो जाता है, यही आत्मा की बद्धदशा है। भारतीय दर्शन में विवेक और सम्यक ज्ञान को आत्मा से कर्मत्व को दूर करने का उपाय माना है। आत्मा ने यदि कर्म बाँधा है, तो वह उससे विमुक्त भी हो सकती है। इसी आधार पर भारतीय दर्शनों में कर्ममल को दूर करने के लिए आध्यात्म-साधना का विधान किया गया है। भारतीय दर्शन की तीसरी विशेषता है, जन्मान्तरवाद अथवा पुनर्जन्म। जन्मान्तरवाद भी चार्वाक को छोड़कर अन्य सभी दर्शनों का एक सामान्य सिद्धान्त है। यह कर्म के सिद्धान्त से फलित होता है। कर्म सिद्धान्त कहता है कि शुभ कर्मों का फल शुभ मिलता है और अशुभ कर्मों का फल अशुभ। परन्तु सभी कर्मों का फल इसी जीवन में नहीं मिल सकता। इसलिए कर्म-फल को भोगने के लिए दूसरे जीवन की आवश्यकता है। यह संसार जन्म और मरण की एक अनादि श्रृंखला है। इसका कारण मिथ्याज्ञान और अविद्या है। जब तत्त्वज्ञान से अथवा यथार्थ बोध से पूर्वबद्ध कर्मों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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