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जैन दर्शन की समन्वय-परम्परा |१०९ सर्वथा नाश हो जाता है, तब इस संसार का भी अन्त हो जाता है। संसार बंध है और बंध का नाश ही मोक्ष है, बंध का कारण अज्ञान है और मोक्ष का कारण तत्त्वज्ञान है। जब तक आत्मा अपने पूर्वकृत कर्मों को भोग नहीं लेगी, तबतक जन्म और मरण का चक्र कभी परिसमाप्त नहीं होगा, यही जन्मान्तरवाद है।
___ भारतीय दर्शनों की सबसे महत्त्वपर्ण विशेषता है. मोक्ष एवं मक्ति। भारतीय दर्शनों का लक्ष्य यह रहा है कि यह मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण के लिए साधक को निरन्तर प्रेरित करते रहें। मोक्ष का सिद्धान्त भारत के सभी आध्यात्मवादी दर्शनों को मान्य है। भौतिकवादी होने के कारण अकेला चार्वाक दर्शन ही इसको स्वीकार नहीं करता। भौतिकवादी चार्वाक जब इस शरीर से भिन्न आत्मा की सत्ता को स्वीकार ही नहीं करता, तब उसके विचार में मोक्ष का उपयोग और महत्त्व ही क्या रह जाता है ? बौद्ध दर्शन में आत्मा के मोक्ष को निर्वाण कहा गया है। निर्वाण का अर्थ है-सब दुःखों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था। जैन दर्शन में मोक्ष, मुक्ति और निर्वाणतीनों शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है। जैन-दर्शन के अनुसार, मोक्ष एवं मुक्ति का अर्थ है-आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था। मोक्ष अवस्था में आत्मा स्व-स्वरूप में स्थिर रहती है, उसमें किसी भी प्रकार का विजातीय तत्त्व नहीं रहता। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के संयोग को संसार कहा गया है और प्रकृति तथा पुरुष के वियोग को मोक्ष कहा गया है। न्याय और वैशेषिक भी यह मानते हैं कि तत्त्वज्ञान से ही मोक्ष होता है। वेदान्त दर्शन तो मुक्ति को स्वीकार करता ही है, उसके अनुसार जीव का बद्ध स्वरूप. को प्राप्त कर लेना ही मुक्ति है। इस प्रकार भारत के सभी अध्यात्मवादी दर्शन मोक्ष एवं मुक्ति का प्रतिपादन करते हैं। हम देखते हैं कि मोक्ष के स्वरूप में और उसके प्रतिपादन की प्रक्रिया में भिन्नता होने पर भी, लक्ष्य सबका एक ही है और वह लक्ष्य है—बद्ध आत्मा को बन्धन से मुक्त करना।
भारतीय दर्शन में एक बात और है, जो सभी आध्यात्मवादी दर्शनों को स्वीकृत है। वह है-आध्यात्मक-साधना। साधना सबकी भिन्न-भिन्न होने पर भी उसका उद्देश्य और लक्ष्य प्रायः एक जैसा ही है। आध्यात्मवादी दर्शन के अनुसार इस साधना को जीवन का आचार-पक्ष कहा जाता है। जब तक विचार को आचार का रूप नहीं दिया जाएगा, तब तक जीवन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। प्रत्येक आध्यात्मवादी दर्शन ने अपने-अपने सिद्धान्त के अनुसार अपने विचार को आचार का रूप देने का प्रयत्न किया है। भारत में एक भी आध्यात्मवादी दर्शन. ऐसा नहीं है, जिसके नाम पर कोई सम्प्रदाय स्थापित न हुआ हो। यह सम्प्रदाय क्या है ? प्रत्येक दर्शन का अपने विचार-पक्ष को आचार में साधित करने के लिए यह एक प्रयोग-भूमि है। सम्प्रदाय उन विचारों की अभिव्यक्ति है, जो उसके द्रष्टाओं ने कभी साक्षात्कार किया था। यही कारण है कि भारतीय दर्शन में विचार और आचार तथा धर्म और दर्शन साथ-साथ चलते हैं। भारतीय दर्शनों की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता
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