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जैन दर्शन की समन्वय-परम्परा १०७ खोज करता है, उसके पीछे एकमात्र उद्देश्य यही है कि मानव-जीवन के चरम लक्ष्य—मोक्ष को प्राप्त करना। एक बात और है, भारत में दर्शन और धर्म सहचर और सहगामी रहे हैं। धर्म और दर्शन में यहाँ पर न किसी प्रकार का विरोध है और न उन्हें एक-दूसरे से अलग रखने का ही प्रयत्न किया गया है। दर्शन सत्ता की मीमांसा करता है और उसके स्वरूप को तर्क और विचार से पकड़ता है, जिससे कि मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन एक बौद्धिक विलास नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक खोज है। धर्म क्या है ? वह आध्यात्म-सत्य को अधिगत करने का एक व्यावहारिक उपाय है। भारत में दर्शन का क्षेत्र इतना व्यापक है कि भारत के प्रत्येक धर्म की शाखा ने अपना एक दार्शनिक आधार तैयार किया है। पाश्चात्य Philosophy शब्द और पूरबीय दर्शन शब्द की परस्पर में तुलना नहीं की जा सकती। Philosophy शब्द का अर्थ होता है—ज्ञान का प्रेम, जबकि दर्शन का अर्थ हैसत्य का साक्षात्कार करना। दर्शन का अर्थ है-दृष्टि। दर्शनशास्त्र सम्पूर्ण सत्ता का दर्शन है, फिर भले ही वह सत्ता चेतन हो अथवा अचेतन। भारतीय दर्शन का मूल आधार चिन्तन और अनुभव रहा है। विचार के साथ आचार की भी इसमें महिमा और गरिमा रही है।
यहाँ प्रश्न यह होता है कि भारतीय दर्शनों में विषमता कहाँ है ? मुझे तो कहीं पर भी भारतीय दर्शनों में विषमता दृष्टिगोचर नहीं होती है। अनेकान्तवाद की दृष्टि से विचार करने पर हमें सर्वत्र समन्वय और सामञ्जस्य ही दृष्टिगोचर होता है, कहीं पर भी विरोध और विषमता नहीं मिलती। भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है, उनका वर्गीकरण किसी भी पद्धति से क्यों न किया जाए, किन्तु उनका गम्भीर अध्ययन और चिन्तन करने से ज्ञात होता है कि एक चार्वाक दर्शन को छोड़कर, भारत के शेष समस्त दर्शनों का जिसमें वैदिक दर्शन, बौद्धदर्शन और जैन दर्शन की समग्र शाखाओं एवं उपशाखाओं का समावेश हो जाता है, उन सबका मूल ध्येय रहा है, आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन और मोक्ष की प्राप्ति। अतः मैं भारतीय दर्शन को दो विभागों में विभाजित करता हूँ भौतिकवादी और आध्यात्मवादी। एक चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के अन्य सभी दर्शन आध्यात्मवादी हैं, क्योंकि वे आत्मा की सत्ता में विश्वास रखते हैं। आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में भले ही सब एक मत न हों, किन्तु उसकी सत्ता से किसी को इन्कार नहीं है। क्षणिकवादी बौद्ध दर्शन भी आत्मा की सत्ता को स्वीकार करता है। जैन दर्शन भी आत्मा को अमर, अजर और एक शाश्वत तत्त्व स्वीकार करता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का न कभी जन्म होता है और न कभी उसका मरण ही होता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन आत्मा की अमरता में विश्वास रखते हैं, किन्तु आत्मा को वे कूटस्थ, नित्य और विभु मानते हैं। सांख्य दर्शन और योग दर्शन चेतन की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उसे नित्य और विभु मानते हैं, मीमांसा दर्शन भी आत्मा की अमरता को स्वीकार करता
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