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________________ | १०० चिंतन की मनोभूमि है। जिन्हें वे आस्तिक कहते हैं, वे लोग भी परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में कहाँ एकमत हैं ? मुसलमान खुदा का स्वरूप कुछ और ही बताते हैं, ईसाई कुछ और ही। वैदिक धर्म में भी सनातन धर्म का ईश्वर और है, आर्यसमाज का ईश्वर और है। सनातन धर्म का ईश्वर अवतार धारण कर सकता है, परन्तु आर्य समाज का ईश्वर अवतार धारण नहीं कर सकता। अब कहिए, कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक ? केवल परमात्मा को मानने भर से यदि कोई आस्तिक है, तो जैन-धर्म भी अपनी परिभाषा के अनुसार परमात्मा को मानता है, अतः यह भी आस्तिक है। कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि जैन लोग परमात्मा को जगत् का कर्त्ता नहीं मानते, इसलिए नास्तिक हैं। यह तर्क भी ऊपर के तर्क के समान व्यर्थ है। जब परमात्मा वीतराग है, रागद्वेष से रहित है, तब वह जगत् का क्यों निर्माण करेगा ? और फिर उस जगत का जो आधिव्याधि के भयंकर दु:खों से संत्रस्त है ! इस प्रकार जगत् की रचना में वीतराग भाव कैसे सुरक्षित रह सकता है ? और बिना शरीर के, निर्माण होगा भी कैसे? अस्तु, परमात्मा के जगत-कर्तव्य धर्म है ही नहीं। किसी वस्तु का अस्तित्व होने पर ही तो उसे माना जाए ! मनुष्य के पंख नहीं हैं। कल यदि कोई यह कहे कि मनुष्य के पंख होना मानो, नहीं तो तुम नास्तिक हो, तब तो अच्छा तमाशा शुरू हो जायेगा ! यह भी एक अच्छी बला है। इस प्रकार से तो सत्य का गला ही घोंट दिया जाएगा। नास्तिक कौन ? वैदिक सम्प्रदाय में मीमांसा, सांख्य और वैशेषिक आदि दर्शन कट्टर निरीश्वरवादी दर्शन हैं। जगतकर्ता तो दूर की बात रही, ये तो ईश्वर का अस्तित्व तक स्वीकार नहीं करते। फिर भी वे आस्तिक हैं। और जैन-धर्म अपनी परिभाषा के अनुसार परमात्मा को मानता हुआ भी नास्तिक है। यह केवल अपने मत के प्रति मिथ्या राग और दूसरे धर्म के प्रति मिथ्या द्वेष नहीं तो और क्या है ? आज के बुद्धिवादी युग में ऐसी बातों का कोई महत्त्व नहीं। शब्दों के वास्तविक अर्थ का निर्णय व्याकरण से होता है। शब्दों के सम्बन्ध में व्याकरण ही विद्वानों को मान्य होता है, अपनी मन:कल्पना नहीं। आस्तिक और नास्तिक शब्द संस्कृत भाषा के शब्द हैं। अतः इन शब्दों को प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरण के आधार पर विवेचित करके, इसका यथार्थ अर्थ स्पष्ट करना लेना परम आवश्यक है। महर्षि पाणिनि के द्वारा रचित व्याकरण के अष्टाध्यायी नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के चौथे पद का साँठवा सूत्र है-'आस्ति नास्ति दिष्टं मतिः'४/४/६० । भट्टोजी दीक्षित ने अपनी 'सिद्धान्त कौमुदी' में इसका अर्थ किया है "अस्ति परलोक इत्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिकः।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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