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जैन धर्म की आस्तिकता १०१ हिन्दी अर्थ यह है कि-"जो परलोक को मानता है, वह आस्तिक है। और जो परलोक को नहीं मानता है, वह नास्तिक है।"
कोई भी विचारक यह सोच सकता है कि व्याकरण क्या कहता है और हमारे ये कुछ पड़ोसी मित्र क्या कहते हैं ? जैन दर्शन आत्मा को मानता है, परमात्मा को मानता है, आत्मा की अनन्त शक्तियों में विश्वास करता है। आत्मा को परमात्मा बनने का अधिकार देता है। वह परलोक को मानता है, पुनर्जन्म को मानता है, पाप-पुण्य को मानता है, बंधन ओर मोक्ष को मानता है, फिर भी उसे नास्तिक कहने का कौनसा आधार शेष रह जाता है ? जिस धर्म में कदम-कदम पर अहिंसा और करुणा की गंगा बह रही हो, जिस धर्म में सत्य और सदाचार के लिए सर्वस्व का त्याग कर कठोर साधना का मार्ग अपनाया जा रहा हो, जिस धर्म में परम वीतराग भगवान् महावीर जैसे महापुरुषों की विश्व-कल्याणमयी वाणी का अमर स्वर गूंज रहा हो, वह धर्म नास्तिक कदापि नहीं हो सकता। यदि इतने पर भी जैन-धर्म को नास्तिक कहा जा सकता है, तब तो संसार में एक भी धर्म ऐसा नहीं, जो आस्तिक कहलाने का दावा कर सके।
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